आपा

जब कभी बैठे बिठाए, मुझे आपा याद आती है तो मेरी आँखों के आगे छोटा सा बिल्लौरी दिया आ जाता है जो नीम लौ से जल रहा हो।

मुझे याद है कि एक रात हम सब चुपचाप बावर्चीख़ाने में बैठे थे। मैं, आपा और अम्मी जान  कि छोटा बद्दू भागता हुआ आया। उन दिनों बद्दू छः-सात साल का होगा। कहने लगा, “अम्मी जान! मैं भी बाह करूँगा।”

 

“वाह अभी से?” अम्माँ ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर कहने लगीं, “अच्छा बद्दू तुम्हारा ब्याह आपा से कर दें?”

 

“ऊँहूँ” बद्दू ने सर हिलाते हुए कहा।

 

अम्माँ कहने लगीं, “क्यूँ आप को क्या है?”

 

“हम तो छाजो बाजी से ब्याह करेंगे।” बद्दू ने आँखें चमकाते हुए कहा। अम्माँ ने आपा की तरफ़ मुस्कुराते हुए देखा और कहने लगीं, “क्यूँ, देखो तो आपा कैसी अच्छी हैं।”

 

“हूँ बताओ तो भला।” अम्माँ ने पूछा। बद्दू ने आँखें उठा कर चारों तरफ़ देखा जैसे कुछ ढूँढ रहा हो। फिर उसकी निगाह चूल्हे पर आ कर रुकी, चूल्हे में उपले का एक जला हुआ टुकड़ा पड़ा था। बद्दू ने उसकी तरफ़ इशारा किया और बोला, ऐसी! इस बात पर हम सब देर तक हंसते रहे। इतने में तसद्दुक़ भाई आ गए। अम्माँ कहने लगीं, “तसद्दुक़, बद्दू से पूछना तो आपा कैसी हैं?” आपा ने तसद्दुक़ भाई को आते हुए देखा तो मुँह मोड़ कर यूँ बैठ गई जैसे हंडिया पकाने में मुनहमिक हो।

 

“हाँ तो कैसी हैं आपा, बद्दू?” वो बोले।

 

“बताऊँ?” बद्दू चला और उसने उपले का टुकड़ा उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। ग़ालिबन वो उसे हाथ में लेकर हमें दिखाना चाहता था मगर आपा ने झट उस का हाथ पकड़ लिया और उँगली हिलाते हुए बोलीं, “ऊँह।” बद्दू रोने लगा तो अम्माँ कहने लगीं, “पगले इसे हाथ में नहीं उठाते, इस में चिंगारी है।”

 

“वो तो जला हुआ है अम्माँ!” बद्दू ने बिसूरते हुए कहा। अम्माँ बोलीं, “मेरे लाल तुम्हें मालूम नहीं उस के अंदर तो आग है। ऊपर से दिखाई नहीं देती।” बद्दू ने भोलेपन से पूछा, “क्यूँ आपा इस में आग है।” उस वक़्त आपा के मुँह पर हल्की सी सुर्ख़ी दौड़ गई।

“मैं क्या जानूँ?” वो भर्राई हुई आवाज़ में बोली और फुँकनी उठा कर जलती हुई आग में बे-मसरफ़ फूँकें मारने लगी।

 

अब मैं समझती हूँ कि आपा दिल की गहराइयों में जीती थी और वो गहराइयाँ इतनी अमीक़ थीं कि बात उभरती भी तो भी निकल न सकती। उस रोज़ बद्दू ने कैसे पते की बात कही थी मगर मैं कहा करती थी, “आपा तुम तो बस बैठी रहती हो।” और वो मुस्कुरा कर कहती, “पगली!” और अपने काम में लग जाती। वैसे वो सारा दिन काम में लगी रहती थी। हर वक़्त कोई उसे किसी न किसी काम को कह देता और एक ही वक़्त में उसे कई काम करने पड़ जाते। इधर बद्दू चीख़ता, “आपा मेरा दलिया।” उधर अब्बा घूरते, “सज्जादा! अभी तक चाय क्यूँ नहीं बनी?” बीच में अम्माँ बोल पड़तीं, “बेटा धोबी कब से बाहर खड़ा है?” और आपा चुपचाप सारे कामों से निपट लेती। ये तो मैं ख़ूब जानती थी मगर इसके बावजूद जाने क्यूँ उसे काम करते हुए देख कर ये महसूस नहीं होता था कि वो काम कर रही है या इतना काम करती है। मुझे तो बस यही मालूम था कि वो बैठी ही रहती है और उसे इधर-उधर गर्दन मोड़ने में भी उतनी देर लगती है और चलती है तो चलती हुई मालूम नहीं होती। इसके अलावा मैंने आपा को कभी क़हक़हा मार कर हँसते हुए नहीं सुना था। ज़्यादा से ज़्यादा वो मुस्कुरा दिया करती थी और बस।

 

अलबत्ता वो मुस्कुराया अक्सर करती थी। जब वो मुस्कुराती तो उसके होंट खुल जाते और आँखें भीग जातीं। हाँ तो मैं समझती थी कि आपा चुपकी बैठी ही रहती है। ज़रा नहीं हिलती और बिन चले लुढ़क कर यहाँ से वहाँ पहुँच जाती है जैसे किसी ने उसे धकेल दिया हो। इसके बर-अक्स साहिरा कितने मज़े में चलती थी जैसे दादरे की ताल पर नाच रही हो और अपनी ख़ाला-ज़ाद बहन साजो बाजी को चलते देख कर तो मैं कभी न उकताती। जी चाहता था कि बाजी हमेशा मेरे पास रहे और चलती-चलती इस तरह गर्दन मोड़ कर पंचम आवाज़ में कहे, “हैं जी! क्यूँ जी?” और उसकी काली-काली आँखों के गोशे मुस्कराने लगें। बाजी की बात-बात मुझे कितनी प्यारी थी।

 

साहिरा और सुरय्या हमारे पड़ोस में रहती थीं। दिन भर उनका मकान उन के क़हक़हों से गूँजता रहता जैसे किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही हों। बस मेरा जी चाहता था कि उन्हीं के घर जा रहूँ। हमारे घर रखा ही क्या था। एक बैठ रहने वाली आपा, एक ये करो, वो करो वाली अम्माँ और दिन भर हुक्के में गुड़-गुड़ करने वाले अब्बा।

 

उस रोज़ जब मैंने अब्बा को अम्मी से कहते हुए सुना सच बात तो ये है मुझे बेहद ग़ुस्सा आया, “सज्जादा की माँ! मालूम होता है साहिरा के घर में बहुत से बर्तन हैं।”

 

“क्यूँ?” अम्माँ पूछने लगीं। कहने लगे, “बस तमाम दिन बर्तन ही बजते रहते हैं और या क़हक़हे लगते हैं, जैसे मेला लगा हो।”

अम्माँ तुनक कर बोलीं, “मुझे क्या मालूम। आप तो बस लोगों के घर की तरफ़ कान लगाए बैठे रहते हैं।”

अब्बा कहने लगे, “ओफ़्फ़ो! मेरा तो मतलब है कि जहाँ लड़की जवान हुई बर्तन बजने लगे। बाज़ार के उस मोड़ तक ख़बर हो जाती है कि फ़लाँ घर में लड़की जवान हो चुकी है। मगर देखो न हमारी सज्जादा में ये बात नहीं।” मैंने अब्बा की बात सुनी और मेरा दिल खौलने लगा। “बड़ी आई है। सज्जादा जी हाँ! अपनी बेटी जो हुई।” उस वक़्त मेरा जी चाहता था कि जा कर बावर्चीख़ाने में बैठी हुई आपा का मुँह चिड़ाऊँ। इसी बात पर मैंने दिन भर खाना न खाया और दिल ही दिल में खौलती रही। अब्बा जानते ही क्या हैं। बस हुक़्क़ा लिया और गुड़-गुड़ कर लिया या ज़्यादा से ज़्यादा किताब खोल कर बैठ गए और गट मट गट मट करने लगे जैसे कोई भटियारी मकई के दाने भून रही हो। सारे घर में ले दे के सिर्फ़ तसद्दुक़ भाई ही थे जो दिलचस्प बातें किया करते थे और जब अब्बा घर पर न होते तो वो भारी आवाज़ में गाया भी करते थे। जाने वो कौन सा शेर था हाँ,

 

चुप-चुप से वो बैठे हैं आँखों में नमी सी है

नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है

 

आपा उन्हें गाते हुए सुन कर किसी न किसी बात पर मुस्कुरा देती और कोई बात न हुई तो वो बद्दू को हल्का सा थप्पड़ मार कर कहती, “बद्दू रो ना” और फिर आप ही बैठी मुस्कुराती रहती।

 

तसद्दुक़ भाई मेरे फूफा के बेटे थे। उन्हें हमारे घर आए यही दो माह हुए होंगे। कॉलेज में पढ़ते थे। पहले तो वो बोर्डिंग में रहा करते थे फिर एक दिन जब फूफी आई हुई थी तो बातों-बातों में उनका ज़िक्र छिड़ गया। फूफी कहने लगी बोर्डिंग में खाने का इंतिज़ाम ठीक नहीं। लड़का आए दिन बीमार रहता है। अम्माँ इस बात पर ख़ूब लड़ीं। कहने लगीं, “अपना घर मौजूद है तो बोर्डिंग में पड़े रहने का मतलब?” फिर उन दोनों में बहुत सी बातें हुईं। अम्माँ की तो आदत है कि अगली पिछली तमाम बातें ले बैठती हैं। ग़रज़ ये कि नतीजा ये हुआ कि एक हफ़्ते के बाद तसद्दुक़ भाई बोर्डिंग छोड़ कर हमारे हाँ आ ठहरे।

 

तसद्दुक़ भाई मुझसे और बद्दू से बड़ी गप्पें हाँका करते थे। उनकी बातें बेहद दिलचस्प होतीं। बद्दू से तो वो दिन भर न उकताते। अलबत्ता आपा से वो ज़्यादा बातें न करते। करते भी कैसे, जब कभी वो आपा के सामने जाते तो आपा के दुपट्टे का पल्लू आप ही आप सरक कर नीम घूँघट सा बन जाता और आपा की भीगी-भीगी आँखें झुक जातीं और वो किसी न किसी काम में शिद्दत से मसरूफ़ दिखाई देती। अब मुझे ख़याल आता है कि आपा उन की बातें ग़ौर से सुना करती थी गो कहती कुछ न थी। भाई साहब भी बद्दू से आपा के मुतअल्लिक़ पूछते रहते लेकिन सिर्फ़ उसी वक़्त जब वो दोनों अकेले होते, पूछते, “तुम्हारी आपा क्या कर रही है?”

 

“आपा?” बद्दू लापरवाही से दोहराता। “बैठी है, बुलाऊँ?”

 

भाई साहब घबरा कर कहते, “नहीं नहीं। अच्छा बद्दू, आज तुम्हें, ये देखो इस तरफ़ तुम्हें दिखाएँ।” और जब बद्दू का ध्यान इधर-उधर हो जाता तो वो मद्धम आवाज़ में कहते, “अरे यार तुम तो मुफ़्त का ढिंडोरा हो।”

 

बद्दू चीख़ उठता, “क्या हूँ मैं?” इस पर वो मेज़ बजाने लगते। डगमग-डगमग ढिंडोरा यानी ये ढिंडोरा है, “देखा? जिसे ढोल भी कहते हैं डगमग-डगमग समझे?” और अक्सर आपा चलते-चलते उनके दरवाज़े पर ठहर जाती और उनकी बातें सुनती रहती और फिर चूल्हे के पास बैठ कर आप ही आप मुस्कुराती। उस वक़्त उसके सर से दुपट्टा सरक जाता, बालों की लट फिसल कर गाल पर आ गिरती और वो भीगी-भीगी आँखें चूल्हे में नाचते हुए शोलों की तरह झूमतीं। आपा के होंट यूँ हिलते गोया गा रही हो मगर अलफ़ाज़ सुनाई न देते। ऐसे में अगर अम्माँ या अब्बा बावर्चीख़ाने में आ जाते वो ठिठक कर यूँ अपना दुपट्टा, बाल और आँखें संभालती गोया किसी बे-तकल्लुफ़ महफ़िल में कोई बेगाना आ घुसा हो।

 

एक दिन मैं, आपा और अम्माँ बाहर सहन में बैठी थीं। उस वक़्त भाई साहब अंदर अपने कमरे में बद्दू से कह रहे थे, “मेरे यार हम तो उससे ब्याह करेंगे जो हम से अंग्रेज़ी में बातें कर सके, किताबें पढ़ सके, शतरंज, कैरम और चिड़िया खेल सके। चिड़िया जानते हो? वो गोल-गोल परों वाला गेंद बल्ले से यूँ डिज़्, टन, डिज़् और सब से ज़रूरी बात ये है कि हमें मज़ेदार खाने पका कर खिला सके, समझे?”

 

बद्दू बोला, “हम तो छाजो बाजी से ब्याह करेंगे।”

 

“उंह!” भाई साहब कहने लगे।

 

बद्दू चीख़ने लगा, “मैं जानता हूँ तुम आपा से ब्याह करोगे। हाँ!” उस वक़्त अम्माँ ने मुस्कुरा कर आपा की तरफ़ देखा। मगर आपा अपने पाँव के अंगूठे का नाख़ुन तोड़ने में इस क़दर मसरूफ़ थी जैसे कुछ ख़बर ही न हो। अंदर भाई साहब कह रहे थे, “वाह तुम्हारी आपा फ़िर्नी पकाती है तो उसमें पूरी तरह शकर भी नहीं डालती। बिल्कुल फीकी। आख़ थू!”

 

बद्दू ने कहा, “अब्बा जो कहते हैं फ़िर्नी में कम मीठा होना चाहिए।”

 

“तो वो अपने अब्बा के लिए पकाती है ना। हमारे लिए तो नहीं!”

 

“मैं कहूँ आपा से?” बद्दू चीख़ा।

 

भाई चिल्लाए, “ओ पगला! ढिंडोरा! लो तुम्हें ढिंडोरा पीट कर दिखाएँ। ये देखो इस तरफ़ डगमग डगमग।” बद्दू फिर चिल्लाने लगा, “मैं जानता हूँ तुम मेज़ बजा रहे हो न?”

 

“हाँ-हाँ इसी तरह ढिंडोरा पिटता है ना।” भाई साहब कह रहे थे, “कुश्तियों में, अच्छा बद्दू तुमने कभी कुश्ती लड़ी है, आओ हम तुम कुश्ती लड़ें। मैं हूँ गामा और तुम बद्दू पहलवान। लो आओ, ठहरो, जब मैं तीन कहूँ।” और उस के साथ ही उन्होंने मद्धम आवाज़ में कहा, “अरे यार तुम्हारी दोस्ती तो मुझे बहुत महँगी पड़ती है।” मेरा ख़याल है आपा हँसी न रोक सकी इसलिए वो उठ कर बावर्चीख़ाने में चली गई। मेरा तो हँसी के मारे दम निकला जा रहा था और अम्माँ ने अपने मुँह में दुपट्टा ठूँस लिया था ताकि आवाज़ न निकले।

 

मैं और आपा दोनों अपने कमरे में बैठे हुए थे कि भाई साहब आ गए। कहने लगे, “क्या पढ़ रही हो जहनिया?” उनके मुँह से जहनिया सुन कर मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी।

हालाँकि मुझे अपने नाम से बेहद नफ़रत थी। नूर जहाँ कैसा पुराना नाम है। बोलते ही मुँह में बासी रोटी का मज़ा आने लगता है। मैं तो नूर जहाँ सुन कर यूँ महसूस किया करती थी जैसे किसी तारीख़ की किताब के बोसीदा वरक़ से कोई बूढ़ी अम्माँ सोंटा टेकती हुई आ रही हों मगर भाई साहब को नाम बिगाड़ कर उसे सँवार देने में कमाल हासिल था। उनके मुँह से जहनिया सुन कर मुझे अपने नाम से कोई शिकायत न रहती और मैं महसूस करती गोया ईरान की शहज़ादी हूँ। आपा को वो सज्जादा से सजदे कहा करते थे मगर वो तो बात थी, जब आपा छोटी थी। अब तो भाई जान उसे सजदे न कहते बल्कि उसका पूरा नाम तक लेने से घबराते थे। ख़ैर मैंने जवाब दे दिया। “स्कूल का काम कर रही हूँ।”

 

पूछने लगे, “तुमने कोई बर्नार्ड शॉ की किताब पढ़ी है क्या?”

 

मैंने कहा, “नहीं!”

 

उन्होंने मेरे और आपा के दरमियान दीवार पर लटकी हुई घड़ी की तरफ़ देखते हुए कहा, “तुम्हारी आपा ने तो हार्ट ब्रेक हाऊस पढ़ी होगी।” वो कनखियों से आपा की तरफ़ देख रहे थे। आपा ने आँखें उठाए बगै़र ही सर हिला दिया और मद्धम आवाज़ में कहा, “नहीं!” और स्वेटर बुनने में लगी रही।

भाई जान बोले, “ओह क्या बताऊँ जहनिया कि वो क्या चीज़ है, नशा है नशा, ख़ालिस शहद, तुम उसे ज़रूर पढ़ो, बिल्कुल आसान है यानी इम्तिहान के बाद ज़रूर पढ़ना। मेरे पास पड़ी है।”

मैंने कहा, “ज़रूर पढ़ूँगी।” फिर पूछने लगे, “मैं कहता हूँ तुम्हारी आपा ने मैट्रिक के बाद पढ़ना क्यूँ छोड़ दिया?”

 

मैंने चिड़ कर कहा, “मुझे क्या मालूम आप ख़ुद ही पूछ लीजिए।” हालाँकि मुझे अच्छी तरह से मालूम था कि आपा ने कॉलेज जाने से क्यूँ इंकार किया था। कहती थी मेरा तो कॉलेज जाने को जी नहीं चाहता। वहाँ लड़कियों को देख कर ऐसा मालूम होता है गोया कोई नुमाइश-गाह हो। दर्सगाह तो मालूम ही नहीं होती जैसे मुतालए के बहाने मेला लगा हो। मुझे आपा की ये बात बहुत बुरी लगी थी। मैं जानती थी कि वो घर में बैठ रहने के लिए कॉलेज जाना नहीं चाहती। बड़ी आई नुक्ता-चीन। इस के अलावा जब कभी भाई जान आपा की बात करते तो मैं ख़्वाह-म-ख़्वाह चिड़ जाती। आपा तो बात का जवाब तक नहीं देती और ये आपा-आपा कर रहे हैं और फिर आपा की बात मुझ से पूछने का मतलब? मैं क्या टेलीफ़ोन थी? ख़ुद आपा से पूछ लेते और आपा, बैठी हुई गुमसुम आपा, भीगी बिल्ली।

 

शाम को अब्बा खाने पर बैठे हुए चिल्ला उठे, “आज फ़िर्नी में इतनी शकर क्यूँ है? क़ंद से होंट चिपके जाते हैं। सज्जादा! सज्जादा बेटी क्या खाँड इतनी सस्ती हो गई है। एक लुक़मा निगलना भी मुश्किल है।” आपा की भीगी-भीगी आँखें झूम रही थीं। हालाँकि जब कभी अब्बा जान ख़फ़ा होते तो आपा का रंग ज़र्द पड़ जाता। मगर उस वक़्त उसके गाल तमतमा रहे थे, कहने लगी, शायद ज़्यादा पड़ गई हो। ये कह कर वो तो बावर्चीख़ाने में चली गई और मैं दाँत पीस रही थी।

 

“शायद, क्या ख़ूब। शायद!”

 

उधर अब्बा ब-दस्तूर बड़बड़ा रहे थे, “चार-पाँच दिन से देख रहा हूँ कि फ़िर्नी में क़ंद बढ़ती जा रही है।” सहन में अम्माँ दौड़ी-दौड़ी आई और आते ही अब्बा पर बरस पड़ीं, जैसे उनकी आदत है, “आप तो नाहक़ बिगड़ते हैं। आप हल्का मीठा पसंद करते हैं तो क्या बाक़ी लोग भी कम खाएँ? अल्लाह रखे घर में जवान लड़का है उसका तो ख़याल करना चाहिए।” अब्बा को जान छुड़ानी मुश्किल हो गई, कहने लगे, “अरे ये बात है मुझे बता दिया होता, मैं कहता हूँ सज्जादा की माँ।” और वो दोनों खुसर-फुसर करने लगे।

आपा, साहिरा के घर जाने को तैयार हुई तो मैं बड़ी हैरान हुई। आपा उससे मिलना तो क्या बात करना पसंद नहीं करती थी। बल्कि उसके नाम पर ही नाक-भौं चढ़ाया करती थी। मैंने ख़याल किया ज़रूर कोई भेद है इस बात में।

 

कभी-कभार साहिरा दीवार के साथ चारपाई खड़ी कर के उस पर चढ़ कर हमारी तरफ़ झाँकती और किसी न किसी बहाने सिलसिला-ए-गुफ़्तगू को दराज़ करने की कोशिश करती तो आपा बड़ी बेदिली से दो एक बातों से उसे टाल देती। आप ही आप बोल उठती, “अभी तो इतना काम पड़ा है और मैं यहाँ खड़ी हूँ।” ये कह कर वो बावर्चीख़ाने में जा बैठती। ख़ैर उस वक़्त तो मैं चुपचाप बैठी रही मगर जब आपा लौट चुकी तो कुछ देर के बाद चुपके से मैं भी साहिरा के घर जा पहुँची। बातों ही बातों में मैंने ज़िक्र छेड़ दिया, “आज आपा आई थी?”

साहिरा ने नाख़ुन पर पालिश लगाते हुए कहा, “हाँ، कोई किताब मंगवाने को कह गई है। न जाने क्या नाम है उसका, हाँ! हार्ट ब्रेक हाऊस।”

 

आपा इस किताब को मुझ से छिपा कर दराज़ में रखती थी। मुझे क्या मालूम न था। रात को वो बार-बार कभी मेरी तरफ़ और कभी घड़ी की तरफ़ देखती रहती। उसे यूँ मुज़्तरिब देख कर मैं दो एक अंगड़ाईयाँ लेती और फिर किताब बंद कर के रज़ाई में यूँ पड़ जाती जैसे मुद्दत से गहरी नींद में डूब चुकी हों। जब उसे यक़ीन हो जाता कि मैं सो चुकी हूँ तो दराज़ खोल कर किताब निकाल लेती और उसे पढ़ना शुरू कर देती। आख़िर एक दिन मुझ से न रहा गया। मैंने रज़ाई से मुँह निकाल कर पूछ ही लिया, “आपा ये हार्ट ब्रेक हाऊस का मतलब क्या है। दिल तोड़ने वाला घर? इसके क्या मानी हुए?” आपा पहले तो ठिठक गई, फिर वो सँभल कर उठी और बैठ गई। मगर उसने मेरी बात का जवाब न दिया। मैंने उसकी ख़ामोशी से जल कर कहा, “इस लिहाज़ से तो हमारा घर वाक़ई हार्ट ब्रेक है।” कहने लगी, “मैं क्या जानूँ?” मैंने उसे जलाने को कह, “हाँ! हमारी आपा भला क्या जाने?” मेरा ख़याल है ये बात ज़रूर उसे बुरी लगी। क्यूँकि उसने किताब रख दी और बत्ती बुझा कर सो गई।

 

एक दिन यूँ ही फिरते-फिरते मैं भाई जान के कमरे में जा निकली। पहले तो भाई जान इधर-उधर की बातें करते रहे। फिर पूछने लगे, “जहनिया, अच्छा ये बताओ क्या तुम्हारी आपा को फ़्रूट सलाद बनाना आता है?” मैंने कहा, “मैं क्या जानूँ? जा कर आपा से पूछ लीजिए।” हंस कर कहने लगे, “आज क्या किसी से लड़ कर आई हो।”

 

“क्यूँ मैं लड़ाका हूँ?” मैंने कहा।

 

बोले, “नहीं अभी तो लड़की हो शायद किसी दिन लड़ाका हो जाओ।” इस पर मेरी हँसी निकल गई। वो कहने लगे, “देखो जहनिया मुझे लड़ना बेहद पसंद है। मैं तो ऐसी लड़की से ब्याह करूंगा जो बाक़ायदा सुबह से शाम तक लड़ सके, ज़रा न उकताए।” जाने क्यूँ मैं शर्मा गई और बात बदलने की ख़ातिर पूछा, “फ़्रूट सलाद क्या होता है भाई जान?”

 

बोले, “वो भी होता है। सफ़ेद-सफ़ेद, लाल-लाल, काला-काला, नीला-नीला सा।” मैं उनकी बात सुन कर बहुत हँसी, फिर कहने लगे, “मुझे वो बेहद पसंद है, यहाँ तो जहनिया हम फ़िर्नी खा कर उकता गए।” मेरा ख़याल है ये आपा ने ज़रूर सुन ली होगी। क्यूँकि उसी शाम को वो बावर्चीख़ाने में बैठी नेअमत ख़ाना पढ़ रही थी। उस दिन के बाद रोज़ बिला-नाग़ा वो खाने पकाने से फ़ारिग़ हो कर फ़्रूट सलाद बनाने की मश्क़ किया करती और हम में कोई उसके पास चला जाता तो झट फ़्रूट सलाद की कश्ती छुपा देती। एक रोज़ आपा को छेड़ने की ख़ातिर मैंने बद्दू से कहा, “बद्दू भला बूझो तो वो कश्ती जो आपा के पीछे पड़ी है उस में क्या है?”

 

बद्दू हाथ धो कर आपा के पीछे पड़ गया। हत्ता कि आपा को वो कश्ती बद्दू को देनी ही पड़ी। फिर मैंने बद्दू को और भी चमका दिया। मैंने कहा, “बद्दू जाओ, भाई जान से पूछो इस खाने का क्या नाम है।” बद्दू भाई जान के कमरे की तरफ़ जाने लगा तो आपा ने उठ कर वो कश्ती उससे छीन ली और मेरी तरफ़ घूर कर देखा। उस रोज़ पहली मर्तबा आपा ने मुझे यूँ घूरा था। उसी रात आपा शाम ही से लेट गई, मुझे साफ़ दिखाई देता था कि वो रज़ाई में पड़ी रो रही है। उस वक़्त मुझे अपनी बात पर बहुत अफ़सोस हुआ। मेरा जी चाहता था कि उठ कर आपा के पाँव पड़ जाऊँ और उसे ख़ूब प्यार करूँ मगर मैं वैसे ही चुपचाप बैठी रही और किताब का एक लफ़्ज़ तक न पढ़ सकी।

 

उन्ही दिनों मेरी ख़ाला-ज़ाद बहन साजिदा जिसे हम सब साजो बाजी कहा करते थे, मैट्रिक का इम्तिहान देने हमारे घर आ ठहरी। साजो बाजी के आने पर हमारे घर में रौनक़ हो गई। हमारा घर भी क़हक़हों से गूँज उठा। साहिरा और सुरय्या चारपाइयों पर खड़ी हो कर बाजी से बातें करती रहतीं। बद्दू छाजो बाजी, छाजो बाजी चीख़ता फिरता और कहता, “हम तो छाजो बाजी से ब्याह करेंगे।” बाजी कहती, “शक्ल तो देखो अपनी, पहले मुँह धो आओ।” फिर वो भाई साहब की तरफ़ यूँ गर्दन मोड़ती कि काली-काली आँखों के गोशे मुस्कराने लगते और पंचम तान में पूछती, “है न भई जान क्यूँ जी?”

 

बाजी के मुँह से ‘भाई जान’ कुछ ऐसा भला सुनाई देता कि मैं ख़ुशी से फूली न समाती। इसके बर-अक्स जब कभी आपा ‘भाई साहब’ कहती तो कैसा भद्दा मालूम होता। गोया वो वाक़ई उन्हें भाई कह रही हो और फिर साहब जैसे हल्क़ में कुछ फँसा हुआ हो मगर बाजी साहब की जगह जान कह कर इस सादे से लफ़्ज़ में जान डाल देती थी। जान की गूँज में भाई दब जाता और ये महसूस ही न होता कि वो उन्हें भाई कह रही है। इसके अलावा भाई जान कह कर वो अपनी काली-काली चमकदार आँखों से देखती और आँखों ही आँखों में मुस्कुराती तो सुनने वाले को क़तई ये गुमान न होता कि उसे भाई कहा गया है। आपा के ‘भाई साहब’ और बाजी के ‘भाई जान’ में कितना फ़र्क़ था।

 

बाजी के आने पर आपा का बैठ रहना बिल्कुल बैठ रहना ही रह गया। बद्दू ने भाई जान से खेलना छोड़ दिया। वो बाजी के गिर्द तवाफ़ करता रहता और बाजी भाई जान से कभी शतरंज कभी कैरम खेलती। बाजी कहती, “भई जान एक बोर्ड लगेगा” या भाई जान उसकी मौजूदगी में बद्दू से कहते, “क्यूँ मियाँ बद्दू! कोई है जो हम से शतरंज में पिटना चाहता हो?” बाजी बोल उठती, “आपा से पूछिए।” भाई जान कहते, “और तुम?” बाजी झूट-मूट की सोच में पड़ जाती, चेहरे पर संजीदगी पैदा कर लेती, भवें सिमटा लेती और त्यौरी चढ़ा कर खड़ी रहती फिर कहती, “उँह मुझ से आप पिट जाएँगे।” भाई जान खिलखिला कर हंस पड़ते और कहते, “कल जो पिटी थीं भूल गईं क्या?” वो जवाब देती, “मैंने कहा चलो भई जान का लिहाज़ करो। वर्ना दुनिया क्या कहेगी कि मुझ से हार गए।” और फिर यूँ हँसती जैसे घुँघरू बज रहे हों।

 

रात को भाई जान बावर्चीख़ाने में ही खाना खाने बैठ गए। आपा चुपचाप चूल्हे के सामने बैठी थी। बद्दू छाजो बाजी छाजो बाजी कहता हुआ बाजी के दुपट्टे का पल्लू पकड़े उसके आस-पास घूम रहा था। बाजी भाई जान को छेड़ रही थी। कहती थी, “भई जान तो सिर्फ़ साढे़ छः फुल्के खाते हैं, इसके अलावा फ़िर्नी की प्लेट मिल जाए तो क़तई मुज़ायक़ा नहीं। करें भी क्या। न खाएँ तो मुमानी नाराज़ हो जाएँ। उन्हें जो ख़ुश रखना हुआ, है न भाई जान।” हम सब इस बात पर ख़ूब हँसे। फिर बाजी इधर-उधर टहलने लगी और आपा के पीछे जा खड़ी हुई। आपा के पीछे फ़्रूट सलाद की कश्ती पड़ी थी। बाजी ने ढकना सरका कर देखा और कश्ती को उठा लिया। पेश्तर इसके कि आपा कुछ कह सके। बाजी वो कश्ती भाई जान की तरफ़ ले आई, “लीजिए भाई जा आन, उसने आँखों में हँसते हुए कहा, आप भी क्या कहेंगे कि साजो बाजी ने कभी कुछ खिलाया ही नहीं।”

 

भाई जान ने दो-तीन चमचे मुँह में ठूँस कर कहा, “ख़ुदा की क़सम बहुत अच्छा बना है, किस ने बनाया है?” साजो बाजी ने आपा की तरफ़ कनखियों से देखा और हँसते हुए कहा, “साजो बाजी ने और किस ने भई जान के लिए। बद्दू ने आपा की मुँह की तरफ़ ग़ौर से देखा। आपा का मुँह लाल हो रहा था। बद्दू चिल्ला उठा, “मैं बताऊँ भाई जान?” आपा ने बद्दू के मुँह पर हाथ रख दिया और उसे गोद में उठा कर बाहर चली गई। बाजी के क़हक़हों से कमरा गूँज उठा और बद्दू की बात आई-गई हो गई।

 

भाई जान ने बाजी की तरफ़ देखा। फिर जाने उन्हें क्या हुआ। मुँह खुला का खुला रह गया। आँखें बाजी के चेहरे पर गड़ गईं। जाने क्यूँ मैंने महसूस किया जैसे कोई ज़बरदस्ती मुझे कमरे से बाहर घसीट रहा हो। मैं बाहर चली आई। बाहर आपा, अलगनी के क़रीब खड़ी थी। अन्दर भाई साहब ने मद्धम आवाज़ में कुछ कहा। आपा ने कान से दुपट्टा सरका दिया। फिर बाजी की आवाज़ आई, छोड़िए-छोड़िए और फिर ख़ामोशी छा गई।

 

अगले दिन हम सहन में बैठे थे। उस वक़्त भाई जान अपने कमरे में पढ़ रहे थे। बद्दू भी कहीं इधर-उधर खेल रहा था। बाजी हस्ब-ए-मामूल भाई जान के कमरे में चली गई, कहने लगी, “आज एक धनदनाता बोर्ड कर के दिखाऊँ। क्या राय है आप की?” भाई जान बोले, “वाह, यहाँ से किक लगाऊँ तो जाने कहाँ जा पड़ो।” ग़ालिबन उन्होंने बाजी की तरफ़ ज़ोर से पैर चलाया होगा। वो बनावटी ग़ुस्से से चिल्लाई, “वाह आप तो हमेशा पैर ही से छेड़ते हैं! भाई जान मअन बोल उठे, “तो क्या हाथ से”

 

“चुप ख़ामोश,” बाजी चीख़ी। उसके भागने की आवाज़ आई। एक मिनट तक तो पकड़-धकड़ सुनाई दी। फिर ख़ामोशी छा गई। इतने में कहीं से बद्दू भागता हुआ आया, कहने लगा, “आपा अंदर भाई जान से कुश्ती लड़ रहे हैं। चलो दिखाऊँ तुम्हें, चलो भी।” वो आपा का बाज़ू पकड़ कर घसीटने लगा। आपा का रंग हल्दी की तरह ज़र्द हो रहा था और वो बुत बनी खड़ी थी। बद्दू ने आपा को छोड़ दिया। कहने लगा, “अम्माँ कहाँ है?” और वो माँ के पास जाने के लिए दौड़ा। आपा ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया। “आओ तुम्हें मिठाई दूँ।” बद्दू बिसूरने लगा। आपा बोलीं, “आओ देखो तो कैसी अच्छी मिठाई है मेरे पास।” और उसे बावर्चीख़ाने में ले गई।

 

उसी शाम मैंने अपनी किताबों की अलमारी खोली तो उसमें आपा की हार्ट ब्रेक हाऊस पड़ी थी। शायद आपा ने उसे वहाँ रख दिया हो। मैं हैरान हुई कि बात क्या है मगर आपा बावर्चीख़ाने में चुपचाप बैठी थी जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उसके पीछे फ़्रूट सलाद की कश्ती ख़ाली पड़ी थी। अलबत्ता आपा के होंट भिंचे हुए थे।

 

भाई तसद्दुक़ और बाजी की शादी के दो साल बाद हमें पहली बार उनके घर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। अब बाजी वो बाजी न थी। उसके वो क़हक़हे भी न थे। उसका रंग ज़र्द था और माथे पर शिकन चढ़ी थी। भाई साहब भी चुपचाप रहते थे। एक शाम अम्माँ के अलावा हम सब बावर्चीख़ाने में बैठे थे। भाई कहने लगे, “बद्दू साजो बाजी से ब्याह करोगे?”

 

“ऊँह!” बद्दू ने कहा, “हम ब्याह करेंगे ही नहीं।”

 

मैंने पूछा, “भाई जान याद है जब बद्दू कहा करता था। हम तो छाजो बाजी से ब्याह करेंगे। अम्माँ ने पूछा, आपा से क्यूँ नहीं? तो कहने लगा, बताऊँ आपा कैसी है? फिर चूल्हे में जले हुए उपले की तरफ़ इशारा कर के कहने लगा, ऐसी! और छाजो बाजी?” मैंने बद्दू की तरह बिजली के रौशन बल्ब की तरफ़ उँगली से इशारा किया। “ऐसी!” ऐन उसी वक़्त बिजली बुझ गई और कमरे में अंगारों की रौशनी के सिवा अँधेरा छा गया।

“हाँ याद है!” भाई जान ने कहा। फिर जब बाजी किसी काम के लिए बाहर चली गई तो भाई कहने लगे, “न जाने अब बिजली को क्या हो गया। जलती बुझती रहती है।” आपा चुपचाप बैठी चूल्हे में राख से दबी हुई चिंगारियों को कुरेद रही थी। भाई जान ने मग़्मूम सी आवाज़ में कहा, “उफ़ कितनी सर्दी है।” फिर उठ कर आपा के क़रीब चूल्हे के सामने जा बैठे और उन सुलगते हुए ऊपलों से आग सेंकने लगे। बोले, “मुमानी सच कहती थीं कि इन झुलसे हुए ऊपलों में आग दबी होती है। ऊपर से नहीं दिखाई देती। क्यूँ सजदे?” आपा परे सरकने लगी तो छन सी आवाज़ आई जैसे किसी दबी हुई चिंगारी पर पानी की बूँद पड़ी हो। भाई जान मिन्नत भरी आवाज़ में कहने लगे, “अब इस चिंगारी को तो न बुझाओ सजदे, देखो तो कितनी ठंड है।”

٠٠٠

news-0712

yakinjp


sabung ayam online

yakinjp

yakinjp

yakinjp

rtp yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

judi bola online

slot thailand

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

yakinjp

ayowin

mahjong ways

judi bola online

8941

8942

8943

8944

8945

8946

8947

8948

8949

8950

8951

8952

8953

8954

8955

9001

9002

9003

9004

9005

9006

9007

9008

9009

9010

9011

9012

9013

9014

9015

10031

10032

10033

10034

10035

10036

10037

10038

10039

10040

10041

10042

10043

10044

10045

10101

10102

10103

10104

10105

10106

10107

10108

10109

10110

10111

10112

10113

10114

10115

8956

8957

8958

8959

8960

8961

8962

8963

8964

8965

8966

8967

8968

8969

8970

9016

9017

9018

9019

9020

9021

9022

9023

9024

9025

9026

9027

9028

9029

9030

10046

10047

10048

10049

10050

10051

10052

10053

10054

10055

10056

10057

10058

10059

10060

10116

10117

10118

10119

10120

10121

10122

10123

10124

10125

10126

10127

10128

10129

10130

9036

9037

9038

9039

9040

9041

9042

9043

9044

9045

8876

8877

8878

8879

8880

8996

8997

8998

8999

9000

9046

9047

9048

9049

9050

9051

9052

9053

9054

9055

10061

10062

10063

10064

10065

10066

10067

10068

10069

10070

10131

10132

10133

10134

10135

10136

10137

10138

10139

10140

10001

10002

10003

10004

10005

10006

10007

10008

10009

10010

10011

10012

10013

10014

10015

10016

10017

10018

10019

10020

10021

10022

10023

10024

10025

10026

10027

10028

10029

10030

10141

10142

10143

10144

10145

10146

10147

10148

10149

10150

10071

10072

10073

10074

10075

10076

10077

10078

10079

10080

10081

10082

10083

10084

10085

10151

10152

10153

10154

10155

10156

10157

10158

10159

10160

10161

10162

10163

10164

10165

10086

10087

10088

10089

10090

10091

10092

10093

10094

10095

10096

10097

10098

10099

10100

news-0712