हम शहर की ख़ुफ़िया जेब में गिर जाते हैं
इन शहरों में तो ज़िन्दगियाँ मुर्ग़ी का डरबा हैं
दिन जैसे दानों का एक कटोरा
जिस को जीवन भर हम ख़त्म नहीं कर सकते
सूरज के पीछे उखड़े पलस्तर की दीवार सा बादल है
उसके आगे मस्जिद के मीनार हैं
या फिर टेलीफ़ोन के टावर
आसमान के नीचे हर जानिब
छतों, महलों और गलियों का सर्किट है
यूँ लगता है
दुनिया एक करोड़ मुरब्बा मील पे फैला बिजली-घर है
जीने की कोशिश में जब हम जल्दी करते हैं
नंगी तार से झूलता कव्वा बन जाते हैं
हिर्स की बिल्ली जिस को
शहर की ख़ुफ़िया जेब में छुप कर खा जाती है
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इस्लामपुरा में एक बद-रूह अफ़्सुर्दा है
औरत जो छः साल पहले मर चुकी है
उसकी लाश अभी तक सहन में पड़ी है
औरतें मय्यत के सिरहाने बैठी हैं
कमरा चुग़लियों से भरा हुआ है
इस्लामपुरा की गलियों में बद-रूहें फिरती हैं
और मेरे दिल में सुस्ताने आती हैं
मैं याद करता हूँ
वो छत पर सो रही होती
एक जिन मेरा हाथ उसकी रानों पर फेरता रहता
मैं ब्रेज़ियर में बनियान उड़स कर पिस्तान बनाता
और मुश्त भर लुत्फ़ के बीज गिराता
जब मैं उसे आख़िरी बार मिला
च्यूँटियाँ उसकी एक टाँग कुतर चुकी थीं
उसके तन का तना सूख चुका था
रफ़्ता-रफ़्ता वक़्त की बकरी बदन का फल भी चर गई
क़िस्मत ला-दीन थी
तावीज़ बे-असर गए
और डॉक्टर की दवाई आमिल के किराए से महँगी थी
अस्र की अज़ान के बाद उसे दफ़नाने ले जाएँगे
मैं उसे तब भी देखता था और आज भी देखता हूँ
कल हमारे दरमियान उसका शौहर था
कल हमारे दरमियान हामिला औरत के पेट जैसी क़ब्र होगी
बनियान जो अब मैं नहीं पहनता
ब्रेज़ियर जो अब वो नहीं पहनेगी
ग़ुस्लख़ाने में लटके रहेंगे
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रात का दरख़्त ख़ौफ़ के फलों से लदा है
रात का दरख़्त
मेरे सीने में जड़ें फैला रहा है
उदासी उसकी शाख़ों पर साँप की तरह लिपटी हुई है
और दिल ना-दीदा बौर से भरा हुआ है
बिस्तर पर लिबास सो रहा है
और मैं नंगे पन की गलियों में फिर रहा हूँ
दुनिया देख रही है
दिल के दरख़्त पर ख़ौफ़ के फूल आए हैं
इन फूलों की भारी बास से मेरी रूह अध-मुर्दा है
मैं दुनिया को आवाज़ें देता हूँ
दुनिया इशा की नमाज़ की नीयत लेती है
रात का दरख़्त
ख़ौफ़ के फूलों से लद जाता है
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मेरे आँसुओं से ज़मीन हामिला हो जाती है
हवा मेरे आँसू रोती है
और ख़ामोशी
मेरी सिस्कियों में सिसकती रहती है
मैंने रौशनी के लिए दरवाज़े खोले
तो दिलों में अँधेरा दर-आया
दिन मुझे चोरी करते रहते हैं
और रात मुझे ख़ाली-पन से भरती रहती है
मैंने च्यूँटी तक न मारी
फिर भी क़ातिल मेरा लक़ब बना
लाशें नहला दीं गईं
और उनका मुर्दा पानी
मेरी जड़ों ने चूस लिया
मुश्क काफ़ूर भरी ख़ामोशी
अब मेरी ख़ुशियों का कफ़्फ़ारा है
जहाँ मेरी मय्यत पड़ी है
वहाँ मेरा बचपन खेला था
जहाँ मेरी क़ब्र बनाई गई
अब वहाँ ज़मीन हामिला है
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तुम्हारी छातियाँ दो ख़ुदा हैं, जिन से मैं मिलना चाहता हूँ
तुम्हारे पिस्तानों को मेरे हाथों की प्यास नहीं लगी
नौ सौ छब्बीस घंटों से मैंने तुम्हें छुआ नहीं है
तुम अब तक ज़िंदा कैसे हो
मैं अपने ज़ेर-जामे में सिकुड़ आया हूँ
तुम्हारी ज़बान का ज़ायक़ा मेरे उज़्व से
पेट की गहराई तक उतर आया है
तुम्हारे हाथों की नेल पॉलिश मेरी नाफ़ के नीचे जम चुकी है
भरा हुआ आसमान ख़ाली है
तुम्हारी छातियाँ दो ख़ुदा हैं
जिनके सामने कायनात
शाम की शफ़क़ में सज्दा-रेज़ है
मेरे हाथ
मेरी मुतलाशी आँखें
और तुम्हारे बोसों से महरूम
मेरे सीने और दिल के दरमियान दुनिया
मुतशद्दिद ख़्वाहिश से भर गए हैं
लेकिन अभी तक मेरे पास
उस कैफ़ियत का कोई नाम नहीं
जिसमें सारा दिन
मैं तुम्हारे कूल्हों पर सोया रहता हूँ
और शोलों की लपक
ज़ेर जामे में पिघल जाती है
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तौहीन हमारा क़ौमी फूल है
तौहीन हमारा क़ौमी फूल है
जो हर चौराहे पर खिलता है
इसके बाग़ हमारी धरती की रौनक़ हैं
इसकी ख़ुश्बू जिस्मों, कपड़ों और कमरों से आती है
इस ख़ुश्बू के तआक़ुब में
हम दफ़्तर-दफ़्तर फिरते हैं
और अफ़सर-अफ़सर बिकते हैं
तौहीन हमारा क़ौमी फूल है
जिसका रस जिस्मों को नीला कर देता है
रंग-रंग के ख़ौफ़ हैं जिनके साए
चेहरों को कुमला देते हैं
हम ने हरियाली को ज़ह्र किया
और ख़्वाबों की क़ब्रों पर
इन फूलों की चादर चढ़ा दी
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बेनाम दिन के नाम
रौशन दिन की परी हमारी गलियों से ख़ामोश गुज़र जाती है
और मौत की उरियाँ डायन बिस्तर में घुस आती है
हम मज़दूरी करने जाते हैं
एक ग़ुस्सैला वहशी दिन हम पर हँसता रहता है
हम शाम को भारी जिस्म उठाए लौट आते हैं
रात हमारे गले लिपट कर रोती है
और पूछती है
किन ख़्वाबों के पेड़ हमारे सहन में हैं?
ज़ख़्मी नींदें किस ख़्वाहिश के फल को चखती रहती हैं?
हम किस ख़ुश्बू का बातिन हैं
हम तो तड़ख़े गलियों के कुम्हलाए फूल हैं
और मुश्क का काफ़ूर हमारे दिल के क़ब्रिस्तान में
चारों जानिब महक रहा है
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दुनिया तुम को जैसे भी देखे
दुनिया तुम को जैसे भी देखे
मेरे लिए तुम जंगली शाम की ठंडक हो
शब के शिकम में ढलते-ढलते
तुम मेरी रूह पर बोसे लिख जाती हो
जब तुम रात के गहरे जौफ़ में ढल जाती हो
सफ़-ब-सफ़
तुम्हारी याद की च्यूँटियाँ आती हैं
और रेंगते-रेंगते मेरे दिल में रेंगने लगती हैं
ख़्वाहिश और ख़ूराक
मुहब्बत और मायूसी
वो दाना-दाना सब कुछ चुन लेती हैं
ज़र्रा-ज़र्रा मुझ को
जिस्मों के ख़ाली बिल में भर लेती हैं
दुनिया तुम को जैसे भी देखे
मेरे लिए तुम कोह-ए-नमक की ढलवानों की ना-हमवारी हो
अपनी उतराई पे तुम्हारे कूल्हे
पूठोहार की रात से हम-बिस्तर हो जाते हैं
तुम्हारे दिल की छत पर दो महताब चमकते हैं
जिनकी ज़ौ में मेरी रूह ग़ुस्ल करती है
धुली हुई इस रूह में
तुम अपने होठों का रस भर देती हो
जिस को तुम्हारी याद की च्यूँटियाँ
क़तरा-क़तरा पीती हैं
और लम्हा-लम्हा जीती हैं
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तुम वही रहो, जो हो
जैसे मैं चाँद के दो पिस्तान बनाना चाहता हूँ
जैसे मैं चाहता हूँ
सूरज मेरी बाहों में डूबे
और तुम्हारे सीने की घाटी से उभरे
मैं दिन को शब की नाफ़ से पैदा करना चाहता हूँ
जैसे मेरी रूह ख़िज़ाँ का फूल है
जैसे मेरा दिल एक समुन्द्री घोंघा है
जैसे सारी दुनिया ऐसी है
जैसी वो रहना चाहती है
गंदुम का दूधिया ख़ोशा
भरा हुआ बे-पर्दा भुट्टा
तुम वही रहो
पूरी और अधूरी
जिस का दिल है सय्यारों का सूरज
जिस का जिस्म है सारी कायनात
तुम वही रहो
अय्यारी से पाकीज़ा
जिस को पूजना चाहता है
दुनिया का मक्कार ख़ुदा
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आदमी कायनाती कैफ़े का कूड़ेदान है
आदमी कहता है
वो तन्हाई पर भारी है
इस भारी-पन से हल्की कोई बात नहीं
आदमी आदमियों से मिलता है
आदमी कॉफ़ीख़ानों में जाता है
शोर-ज़दा मौसीक़ी है
अजनबीयत का मेला है
सामने वाली मेज़ तक मीलों की दूरी है
शो-केसों में रखे केक ज़ियादा सोशल हैं
आदमी कॉफ़ी के तख़्मों की तरह ज़माने की चक्की में गिरता है
और मीलों दूर पड़े मेज़ों में बंट जाता है
फिर भी आदमी ख़ुश होता है
ऐ. सी. कमरों और ज़नाना जिस्मों की गर्माइश में
आदमी महँगे बिस्किट की तरह मुस्कुराता है
आदमी आदमियों को देखता है
प्याली भर मफ़ाद की मिठास के लिये
शकर की पुड़िया की तरह
आदमी, आदमी को बरत लेता है
ख़ाली बोतल की तरह
आदमी, आदमी को फेंक देता है
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आदमी ब्योपार है
आदमी ब्योपार है
आदमी का दिल ब्योपार है
आदमी शॉपिंग बैग लिये बाज़ार जाता है
आदमी शॉपिंग बैग में घर वापस आ जाता है
ख़ाली जेब बंधे कुत्ते की तरह भौंकती है
कुत्ते के जिस्म पर जेब नहीं
कुत्ते के सामने प्याला है
कुत्ता सिर्फ़ गाली दे सकता है
आदमी नहीं बन सकता
जिस आदमी की जेब नहीं होती
उसके पास प्याला होता है
आदमी हो या कुत्ता
जो रोटी देता है
वो मालिक होता है
जब प्याला नहीं था
मैं आज़ाद था
अब प्याला भरा हुआ है
ब्योपार हो रहा है
अब मैं पालतू हूँ
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आदमी
आदमीयत की दीवार गिरा सकता है (?)
अबद की मंज़िल तक किस की पहुँच है?
आदमी पैदा होते ही बँध जाता है
चर्च की घंटी से
चर्ख़ के मंदिर से
अपने अंदर से
आदमी मँगता बन जाता है
चर्च की मोमबत्तियों के सामने
सूरज जैसा आदमी मद्धम पड़ जाता है
आदमी अटका रहता है
आदमी मस्जिद के मीनार से लटका रहता है
आदमी सुनता रहता है
सुनते-सुनते आदमी सुन्न हो जाता है
हाकिम की तलवार लटकती रहती है
आदमी सोचता है
मारा जाता है
आदमी झुक जाता है
बिछ जाता है
आदमी
आदमीयत की दीवार के नीचे कुचला जाता है
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क़हत-ज़दा ज़मीन पर बाप का ख़्वाब
मैं देखता हूँ
कई बरस से क़हत का मौसम है
मगर ज़मीन एक जगह से भीग रही है
मैं नौ-मौलूद बच्चे की हैरत में डूब जाता हूँ
तारीक कमरे से आँसुओं की सिसकार उभरती है
कुछ लोग माँ का तआक़ुब कर रहे हैं
और ज़मीन मुसलसल भीग रही है
मैं दो-ज़ानू बैठा खिड़की से देखता हूँ
अस्र की अज़ान गूँज रही है
इज़राईल माँ के बदन में उतर रहा है
और गली में गाड़ियों की तवील क़तार
बाप की बारात में शरीक है
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जिस्मों की दहलीज़ का ख़्वाब
और वो लम्हा जिस में कुछ भी हो सकता है
जब वो लम्हा आया
सीनों की सख़्ती में साँस ने रस्ता पाया
जो न होना था वो होने को हो आया
जोशीली ख़्वाहिश ने जिस्मों की दहलीज़ पे कपड़े फेंके
दो रूहों ने लुत्फ़ के साहिल से इक चाँद उभरते देखा
उस लम्हे की शफ़्फ़ाफ़ी में गर्द भरा दिन डूब गया
लज़्ज़त के सागर में आज़ा फैले
और तेरे गिर्दाब में आ कर उतर गए
सरगोशी जब बढ़ते-बढ़ते हाँप गई
मैंने तेरी थकी-थकी मुस्कान का फूल
साँस की ख़ुश्बू मुरझाने तक चूमा
इस ला-मुतनाही लम्हे की रात मगर मुतनाही थी
जज़्बों का सागर जब शांत हुआ
हम जिस्मों की दहलीज़ पे आए
तो याद आया
मैं अपनी रूह तेरे गिर्दाब में ही छोड़ आया हूँ
मैं उसको वापस लेने आऊँगा
कब, कहाँ और कैसे?
मुझे नहीं मालूम
शायद उस लम्हे में
जिस में कुछ भी हो सकता है
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ख़ाली रात का ख़्वाब
शाम पर रात उतर रही है
औरत पर आदमी सवार हो रहे हैं
चाँद मुझे देख रहा है
मैं तुम्हें सोच रहा हूँ
वक़्त खड़ा मुश्त-ज़नी कर रहा है
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ज़ाहिद इमरोज़ इस वक़्त उर्दू नज़्म का एक अहम नाम हैं. वो अपनी नज़्मों में इंसान, जिंस, ज़िन्दगी और मज़हब के जब्र की बात खुल कर करते हैं. उनकी नज़्में अपने पूरे पैकर में एक सवाल की तरह हमारे सामने आ खड़ी होती हैं. अभी तक उनके तीन नज़्मों के मजमूए ‘ख़ुदकुशी के मौसम में‘, ‘कायनाती गर्द में उरयाँ शाम‘ और ‘जले हुए आसमान के परिंदे‘ के नाम से छप कर सामने आ चुके हैं. और हिंदी के लिए उनकी नज़्मों का इंतिख़ाब उर्दू के अहम शायर नईम सरमद ने किया है. ये नज़्में भारत से शाए होने वाले वाले ज़ाहिद इमरोज़ के तीसरे मजमूए ‘जले हुए आसमान के परिंदे’ से ली गई हैं. जो कि लखनऊ के मैटरलिंक पब्लिकेशन्स से छप कर सामने आया है. ये इदारा क़ाज़ी ज़करिया का है, जिन्होंने बहुत सी अहम उर्दू किताबों को भारत में छापने का सिलसिला शुरू किया है.