एक पेड़ का क़त्ल

एक क्वार्टर के बग़ल में एक बहुत ही ऊँचा, मज़बूत, घना और सुंदर पेड़ था। शहर के मशहूर बाग़ को बड़े बेढंगे तरीक़े से काट-काटकर बेतरतीब, बेढंगे क्वार्टर खड़े कर दिए गए थे। न आकार ठीक, न नक्शा। सिर्फ़ एक क्वार्टर उस घने और ऊँचे पेड़ की वजह से बहुत अच्छा लगता था। हरा-भरा, छायादार, माहौल की बेरंग सपाटता और बेसुरी गूंज को दूर करने वाला। गहरी जड़ें, संतुलित, भारी भरकम ऊँचा तना, फैली हुई सेहतमंद टहनियाँ, हरे कोमल अंकुर, सुंदर, हरे-भरे बोलते पत्ते।

उस पेड़ की ऊँचाई देखकर दिल ख़ुश हो जाता था और आँखें ऊपर आसमान की ओर उठ जाती थीं। दिल में बड़ा भरोसा और हौसला पैदा होता था। जिस मिट्टी से ऐसा विशाल पेड़ उगे, वह मिट्टी पवित्र महसूस होती थी। इस पुराने बाग़ के कितने सुंदर और फलदार पेड़ काट दिए गए होंगे — आम, लीची, जामुन, अमरूद और शरीफ़े के। ख़ाली ज़मीनों और बंजर इलाक़ों की कोई कमी नहीं थी, लेकिन न जाने किस की संतुष्टि के लिए यही सुंदर बाग़ काटा गया।

इस उजड़े हुए बाग़ की एक कहानी थी। कहा जाता है कि यह शाही समय का बाग़ था। एक उदार नवाब ने इसे अपने जिगरी दोस्त एक महाराजा को तोहफ़े में दिया था। उन्हीं दिनों एक पहुँचा हुआ फ़क़ीर बाग़ के एक कोने में आकर धूनी रमा कर बैठ गया। महाराजा ने कोई विरोध नहीं किया बल्कि इसे शुभ समझा और पास के एक टुकड़े की ज़मीन भी शाह साहब को दे दी। आज भी उस अहाते में क़ब्रें मौजूद हैं। उस सूफ़ी फ़क़ीर का सालाना उर्स हिंदू-मुसलमान सभी धूमधाम से मनाते हैं। जिस भव्य पेड़ का ज़िक्र है, वह शाह साहब की क़ब्र पर साया किए खड़ा था, जैसे छत्र लगाने का सौभाग्य पा रहा हो। लोगों में यह मान्यता थी कि यह पेड़ भी पवित्र है और इस ज़मीन की मिट्टी पाक है।

जब अंग्रेज़ों का राज आया, तो बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने ज़बरदस्ती करके यह बाग़ महाराजा से औने-पौने दाम में ख़रीद लिया। यहीं सरकार बहादुर की कोठी बनी, लेकिन बाग़ का बड़ा हिस्सा बर-क़रार रहा और समय पर फल देता रहा। क़ब्रें धीरे-धीरे उजड़ती गईं और उनके निशान भी मिटते गए, लेकिन पीर साहब की क़ब्र जैसी थी वैसी ही बनी रही।

 

1857 के असफल भारतीय विद्रोह के बाद इसी बाग़ में कई क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया गया। अंग्रेज़ी राजमहल ख़ून और मांस के कीचड़ से बना था। उस विशाल पेड़ ने यह ख़ूनी नज़ारा देखा था। लोग कहते हैं कि इस अनोखे पेड़ की सिंचाई शहीदों के ख़ून से हुई थी। इसी वजह से अगर कोई इसकी पत्तियाँ या शाखाएँ तोड़ता, तो उनमें से लाल ख़ून टपकने लगता। यही कारण था कि जब नए क्वार्टरों के लिए पेड़ों को काटा गया, तो किसी बढ़ई की हिम्मत नहीं हुई कि इस पवित्र जीवित पेड़ पर आरा चलाए।

यह पेड़ अपने आप में एक अजूबा था। इसका नाम किसी को ठीक से नहीं पता था। कोई कुछ कहता, कोई कुछ और। न फूल, न फल — मगर हरियाली, ताज़गी, आँखों की ठंडक और दिल का सुकून कमाल का था। यह भी कहा जाता था कि 1857 से पहले इसमें फूल लगते थे, फल आते थे। एक और मान्यता थी कि अंग्रेजों की हुकूमत के बाद कुछ बड़े और सुगंधित फूल खिले थे और लाल-लाल फल भी आए थे, जिससे अंग्रेज़ बहुत हैरान हुए थे। अब वर्षों से किसी ने न फूल देखे, न फल खाए। पूरे शहर में ऐसा पेड़ नहीं था। राज्य और देश भर में भी यह अनोखा और अकेला ऐसा पेड़ था। मुझे इस पेड़ के रौब और गरिमा से बड़ा सुकून मिलता था। लगता था वह आँधियों और तूफ़ानों से हमारी ढाल बनेगा। वह हमारा सहारा, रक्षक, पड़ोसी, साथी और दुखों में साथ देने वाला था।

वह दिशासूचक था। एक ऊँची और महान निशानी था। पूरे इलाक़े की अलग पहचान उसी से थी। मैं घंटों उसे देखा करता था। हर मौसम में उसकी अलग ही बहार थी। सुबह, दोपहर, शाम — जब भी देखो, वह दिल को भाने वाला लगता था। चांदनी रातों में उसका सौंदर्य अद्भुत होता था। अंधेरी रातों में वह एक ऊँचा, मज़बूत और जागता हुआ पहरेदार नज़र आता था, और उसकी निगरानी में हम सब चैन की नींद सोते थे। उसकी ख़ामोश बातों को मैं कभी नहीं भूल सकता। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता कि उस पेड़ का बीज मेरे दिल में है — जो कभी न कभी उगेगा और एक ऊँचा और सम्मानित वृक्ष बन जाएगा।

उस हरे-भरे पेड़ को काटने की वर्षों से कोशिशें चल रही थीं, लेकिन उसकी पवित्रता को जानने वाले बढ़ई और मज़दूर उसे काटने से डरते थे। उस पेड़ की नसों में लाल-लाल ख़ून दौड़ता था और उसकी छाया पीर साहब की सेवा करती थी। वह क़ब्र के पास जीवित चौकीदार की तरह सतर्क खड़ा रहता था। कभी-कभी कोई ठेकेदार दूर के शहर से मज़दूर बुलाकर इस पवित्र पेड़ को काटकर उसकी लकड़ी बेचकर मुनाफा कमाना चाहता, लेकिन देखा गया कि जैसे ही पेड़ की किसी शाख़ या तने पर कुल्हाड़ी चलती, लाल रस बहने लगता और मज़दूर डर से कांपने लगते, काम बंद हो जाता। एक बार तो कुल्हाड़ी चलाने वाला मज़दूर ऊँची शाख से गिरकर मर गया। कभी कोई मजदूर गंभीर रूप से बीमार पड़ जाता। यानी यह जीवन और करुणा का प्रतीक पेड़, आसमान में झूमता रहता और उसका वातावरण ही उसका पालना बना रहता। उसे देखकर शक्ति और शांति का एहसास होता।

पिछली गर्मियों में न जाने कहाँ से एक कठोर और निर्दयी ठेकेदार आ गया जिसे कुछ बे-ख़ौफ़ मज़दूर भी मिल गए। उन्होंने एक नई योजना से उस शानदार पेड़ का क़त्ल शुरू किया। बहुत लंबी, मोटी रस्सियों से उस पेड़ पर फंदे डाले गए। ऊपर की पतली-पतली शाखों को काट-काटकर फांसी पर चढ़ाया गया। फिर बड़े तनों की बारी आई और उन्हें आरी से काट-काटकर लटकाया गया। कई मज़दूर उन कटे हुए तनों को धीरे-धीरे झुलाते हुए ज़मीन पर लाते ताकि क्वार्टरों को नुक़सान न हो। वह पेड़ जड़ के पास से गिराया नहीं जा सकता था। उसकी गरिमा और रुआब डर पैदा करता था। उसमें धरती का जीवनदायिनी रस, ऊँचे आकाश की रोशनी और धड़कती हुई ज़िंदगी की हरियाली समाई हुई थी।

पंद्रह दिनों तक उस पेड़ को फांसी दी जाती रही। अंग-अंग से लाल-लाल रस बहता रहा। फिर थोड़ी देर बाद वह ख़ून की बूंदों की तरह जमने लगता। उस रस का रंग बबूल के गोंद की तरह पीला नहीं था। क्वार्टरों की नालियों में लाल-लाल चिपचिपा कीचड़ के साथ बह रहा था। अचानक कई मज़दूर बीमार पड़ गए और कई मोटी रस्सियाँ टूट गईं। पंद्रह दिन तक काम बंद हो गया। लंबे बालों और चढ़ी हुई आँखों वाले ठेकेदार को बहुत चिंता हुई। मोहल्ले के लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई और पीर साहब की करामात के चर्चे होने लगे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो चाहते थे कि यह ऊँचा विशाल पेड़ कट जाए ताकि वे अपने छोटे-छोटे आँगनों में मूली, गोभी, आलू और चुकंदर उगाकर कुछ पैसे कमा सकें। उस महान पेड़ के साम्राज्य में मूली और चुकंदर कैसे उगते? हाँ, वहाँ तो शांति, सुकून, तसल्ली, राहत और सुंदरता की खेती होती थी और चैन की वर्षा होती थी।

काम फिर शुरू हो गया। पेड़ के बड़े-बड़े मोटे तने काटे जाने लगे। हर तने को मोटी रस्सियों से कई दिशाओं में बाँधा जाता था और उनके सिरे दर्जनों मज़दूर ज़मीन पर तनकर पकड़ते थे। पेड़ के तनों पर कुल्हाड़ी और आरी से कुशल मज़दूर उसके जोड़-बंद काटते जाते थे और उन्हें मज़बूत रस्सियों से बाँधकर धीरे-धीरे झुलाकर ज़मीन पर लाया जाता था, क्वार्टरों से बचाकर। दूर से ऐसा लगता था जैसे गठीले शरीर वाले पहलवानों को फाँसी दी जा रही हो और उनकी भारी-भरकम लाशें ज़मीन पर पड़ी हैं। हर रोज़ दो-तीन ही तने काटे जा सकते थे और उन्हें नीचे लाना बहुत कठिन काम होता था। रस्सियाँ कई दिशाओं में बँधी होती थीं और एक केंद्रीय रस्सी को धीरे-धीरे ढील दी जाती थी ताकि पेड़ के बहुत बड़े टुकड़े छतों और दीवारों से बचकर ज़मीन पर गिरें। फिर भी ज़ोर का धमाका होता और दीवारें काँप जातीं।

कुछ ही दिनों में जीवित, हरा-भरा और ख़ुशियाँ देने वाला पेड़ काट डाला गया — जैसे पहले लोगों को सूली पर चढ़ाने के बाद उनकी हड्डियाँ तोड़ दी जाती थीं। महीनों तक मेरा मन भी सूली पर चढ़ा रहा और मेरे दिल को बार-बार ज़ख़्म दिए जाते रहे।

अब एक चौड़ा, रुआबदार, जड़ों वाला मोटा तना और उससे निकले दो बड़े हिस्से, पत्तों और जान से रहित पड़े थे। ऊपर के दोनों हिस्सों से बँधी रस्सियाँ लटक रही थीं। एक सुबह मैं अपने आँगन में टहल रहा था। मेरी नज़र उस ठूंठ पेड़ पर पड़ी। ज़मीन पर उसके तनों की लाशें बिखरी पड़ी थीं। बहुत से तने और शाख़ें ठेकेदार बैलगाड़ियों में ले गया था। उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे सामने एक विशाल गुलेल है। उसके विशाल दो-शाख़े आसमान तक ऊँचाई पाना चाहते हों और उसका भारी-भरकम हत्था धरती के हाथ में हो और अब शक्तिशाली धरती उस कटे हुए तने के छोटे-छोटे टुकड़ों को गुलेल पर चढ़ाकर निशाना साधेगी और हत्यारों पर वार करेगी।

एक दिन वह दो-शाख़ा भी काट दिया गया, लेकिन गिरते वक़्त एक शाख़ क्वार्टर की दीवार से टकराकर उसे चीर गई और दूसरी शाख़ ने दूसरे क्वार्टर के गैराज की छत को चकनाचूर कर दिया। न जाने क्यों, कई महीने तक ठेकेदार ने काटने का काम रोक दिया और बीच का मोटा तना दीवार से टिकी हुई लाश की तरह खड़ा रहा। हफ्तों तक वह दर्द भरा तना मरे हुए सुख और शांति की निशानी बनकर मेरे दिल में बसा रहा और दो शाख़े टूटी हुई बैसाखियों की तरह ज़मीन पर पड़े थे।

बैसाख और जेठ के महीने बीत गए और आषाढ़ आ गया। बीच-बीच में बादल आए और कुछ फुहारें पड़ीं। एक सुबह ऐसा चमत्कार हुआ कि हमारी आत्मा खिल उठी। कुछ ही दिन में ठेकेदार फिर दिखाई दिया। पेड़ के बीच के तने पर मज़दूरों को आरी चलाने के लिए बुलाया गया। पहले कुल्हाड़ी चलने की आवाज़ें आईं। हम सब चौकन्ना हो गए और दौड़ते हुए उस मरे हुए पेड़ की ओर भागे। देखा कि अब पेड़ को जड़ से काटा जा रहा है। हमने ठेकेदार और मज़दूरों का ज़ोरदार विरोध किया और साफ़ कह दिया कि अब जड़ वाला तना नहीं कटेगा। जो तने ज़मीन पर पड़े हैं, उन्हें ले जाना हो तो ले जाओ, लेकिन अब जड़ को हाथ नहीं लगाने देंगे। तेज़ बहसम-बहसी के बाद ठेकेदार और उसके लोग वहाँ से चले गए और अगले दिन वे ज़मीन पर पड़े हुए लकड़ी के टुकड़े लादकर ले गए।

घायल, जड़ों वाला तना अब भी धैर्य, हिम्मत, शांति और उम्मीद के साथ खड़ा है। उसके ऊपर की ओर नई-नई हरी कोपलें निकल रही हैं और क्वार्टरों की छतों से ऊँची कुछ नई हरी-भरी शाखाएँ हवा में लहरा रही हैं। वह बरकत वाला पेड़ फिर से जी उठा है।

०००

 

अख़्तर ओरेनवी (1911-1977) उर्दू के बेहतरीन कहानीकार रहे हैं। उनकी कहानियों में कलियाँ और काँटेऔर किवाड़ की ओट सेबहुत मशहूर हुईं। उन्होंने उपन्यास भी लिखे और शायरी भी की। उनकी यह कहानी, जो यहाँ और हिंदीकी वेबसाइट पर अपलोड की जा रही है, उर्दू में एक दरख़्त का क़त्लनाम से जानी जाती है। इस कहानी को पेश करते हुए दरअसल हम एक प्रयोग कर रहे हैं। यह तर्जुमा किसी इंसान का किया हुआ नहीं है, बल्कि इसे AI द्वारा अनूदित किया गया है। बस टेक्स्ट में कहीं कोई कमी न रह जाए, इसलिए एक बार ठीक से जाँच लिया गया है। हो सकता है कि इसे पढ़ने पर रचनात्मकता की सतह पर जो एक इंसानी छुअन की कशिश होती है, उसकी कमी महसूस हो। मगर पाठकों को अगर यह किसी सूरत क़ुबूल हो, तो ऐसी दूसरी कहानियाँ भी हिंदी में लाई जा सकती हैं, जो अभी तक तर्जुमा नहीं हुई हैं। इसके ज़रिए बहुत सा टेक्स्ट, एक मामूली से रिव्यू के बाद, एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाया जा सकता है। इस पर आपकी राय का इंतज़ार रहेगा। शुक्रिया!

Facebook
Twitter
LinkedIn