मुस्तफ़ा अरबाब की नज़्में

रौशनी

वो
मुझ पर अयाँ है
रौशनी की धार की मानिंद
उस ने
अपनी धार से
मुझे
टुकड़े-टुकड़े कर के देखा है
मेरी कोई भी चीज़
उस से पोशीदा नहीं है
वो
मेरे चप्पे-चप्पे से आगाह है

रौशनी की धार के सामने
मेरी आँखें बंद होने लगती हैं
एक चमक के सिवा
मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता
लड़की
कितनी ही अयाँ हो जाए
पोशीदा ही रहती है

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फ़ैसला

मैं
अब कभी उस से बात नहीं कर पाउंगा
मेरी ख़ुद-कलामी से
उस की समाअत आश्ना न हो सकी
मेरी आँखें
उसे कभी नहीं देख पाएँगी
हमारे बीच
उस ने ख़ुद
एक आहनी दीवार तामीर कर दी है
अब मैं
उसे दूसरों के साथ
हंसते हुए देखने की मुसर्रत से भी महरूम हो चुका हूँ
इस बार
फ़ैसला उस ने ख़ुद किया है
मैं उस के फ़ैसलों को
रद्द करने का इख़्तियार खो चुका हूँ
उस ने
मुझे आख़िरी बात कहने का हक़ भी नहीं दिया
हम ने
एक दूसरे को समझने में ग़लती की
मेरी मुहब्बत को
वो बोझ समझने लगी
उस की नफ़रत को
मैं मुहब्बत की तरह चाहता रहा
मैं ख़ुश हूँ
मेरा शुमार
नफ़रत करने वालों में नहीं
मुहब्बत करने वालों में होगा

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वर्किंग वूमन

 

मर्द की दुनिया में
दाख़िल होने के लिये
एक लड़की जैसा हौसला चाहिये
हौसले से
लड़की की अपनी दुनिया तख़लीक़ होने लगती है

घूरती आँखों के दर्मियान
सुरंग बना कर आगे बढ़ना
लड़की की फ़ित्रत में है

लड़की
रफ़्ता-रफ़्ता सीख जाती है
बुलंदी पर तनी रस्सी पे क़दम जमा कर चलना

पानी में तैरती मछली
और हवा में उड़ती तितली की तरह
वो महसूस करवाती है
अपना वुजूद

पहल करना
मुश्किल-तरीन काम है
दुनिया का

हर लड़की
कोशिश करती है
दूसरी लड़की के लिये
राह हमवार बना दे

मर्द मसरूफ़ रहते हैं हमेशा

वो
लड़कियों को तकते हुए
कभी नहीं उकताते

लड़कियाँ
जानती हैं
मर्दाना निगाहों को कुंद करने का हुनर

आतिशीं हाले में
घिरी हुई लड़की
मर्द की दुनिया को पिघला कर मादूम कर सकती है
मर्दानगी के मादूम होते ही
एक लड़की
अपनी शिनाख़्त पाती है

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ज़वाल


बहुत बोलता है वो
उसे सुनने के बाद लोग
ख़ामोशी के फ़वाइद पे
ग़ौर करने लगते हैं
वो ब-यक-वक़्त
किसी भी बात के हक़ में
और उस की मुख़ालिफ़त में दलाइल देने की सलाहियत रखता है
वो
अपनी क़ुव्वत-ए-शाम्मा को ब-रू-ए-कार लाते हुए
हमेशा उस तरफ़ जाता है
जिस तरफ़ हड्डी पे गोश्त ज़ियादा हो
उस की बहती राल से
ख़ौफ़-ज़दा नहीं होना चाहिये
वो किसी को भी नहीं काटता
नोचने के लिये
उस के अपने बदन पे
वाफ़िर मिक़दार में बोटियाँ हैं
एक बार पाँव फिसलने के बाद
वो
गिरता ही चला जा रहा है
ज़वाल की कोई इंतिहा नहीं होती

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मुदाख़िलत


मुझ पे लफ़्ज़ बरसाए गए
किसी ने रोकने के लिए मुदाख़िलत नहीं की
उन्होंने  कहा
नज़र-अंदाज करना
बड़े आदमी का शेवा है
मेरी आँखों में नमी आई तो
उन्होंने कहा
मर्द रोया नहीं करते
मेरा ज़ब्त टूटने लगा तो
मुझे
ख़ब्त-ए-अज़मत में मुब्तिला करने की कोशिश की गई
मेरी तन्हाई में
किसी ने झाँक कर नहीं देखा
सहने के अज़ाब से बड़ी कोई अज़ीय्यत नहीं होती
मक्काराना अख़लाक़ियात ने
मुहब्बत की तरह
मुझ से
नफ़रत करने का इख़्तियार भी छीन लिया
मैं सादा इन्सानी सतह पर
खुल कर नफ़रत का इज़हार चाहता हूँ
गदली नफ़रत की निकासी
वुजूद को फिर से शफ़्फ़ाफ़ बना देगी
बर्तन धुलने के बाद ही चमकते हैं
मुझे ग़ैर-इन्सानी ज़ब्त में चुनने वाले
नहीं जानते
वुजूद में मुक़य्यद
नफ़रत की तपिश से
आदमी झुलस जाता है
मुहज़्ज़ब दुनिया में
छोटे क़द का आदमी
बड़े क़द वाले को
आसानी से ज़ेर कर सकता है

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एक लड़की

 

उस के वुजूद को
बयान किया जा सकता है
चार सम्तों की तरह
चार लफ़्ज़
आँखें
होंट
आवाज़
और दिल में
वो समेटी जा सकती है
उसे चार हुरूफ़ में
बयान करने के लिये
मुझे उस से
मुहब्बत करनी पड़ी
मुहब्बत को बयान करने के लिये
हर लुग़त ना-काफ़ी है

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एक नज़म

(अज़ारीन सादिक़* के नाम)

मैंने
तुम्हारी आँखों से
अपनी सर बुरीदा लाश देखी थी
मैंने
तुम्हारे कानों से
“जाग जाओ” की सदा सुनी थी
मेरा दिल
तुम्हारे दिल का हम-साया था
तुम्हारी परछाईं मेरी मिट्टी पर ठहर गई है
मेरी याद
अभी तक
तुम्हारी ज़िंदगी के एक कोने में पड़ी हुई है
याद
मुझे मरने नहीं देती
मैं
एक कशकोल ले कर
एक चेहरे की सदा लगाता हूँ
मुझे
कहीं से
कोई चेहरा नहीं मिलता
मैं और तुम्हारी याद
दोनों सर बुरीदा हैं
तुम्हारी याद को
शिनाख़्त देने के लिये
मैं चेहरे के साथ
तुम्हारी कोख से जन्म लूँगा

*अज़ारीन सादिक़ ईरानी मुसन्निफ़ा है जिस ने जंग के दिनों पर अपनी याद्दाश्तें लिखीं, जिन में एक बच्चे की सर बुरीदा लाश का ज़िक्र है जिस ने हमेशा उसे बेचैन किये रखा।

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एक अजीब आदमी

 

बहुत अजीब है वो आदमी
निकलता ही नहीं बाहर
अपनी राह-दारियों से
अपने ही रास्ते बनाता जाता है
तोड़ देता है अपने ही ख़्वाबों को
तलवे ज़ख़्मी कर लेता है
अपने ख़्वाब की किर्चियों पे चलते हुए
कोई ख़ुश नहीं है उस से

अपने आप से
सारी ज़िंदगी नाराज़ी में गुज़ार दी उस ने
हमेशा मसरूफ़ रहता है
दुख की पगडंडी बनाते हुए
अजीब आदमी है वो
न जाने किन हवाओं को
अपने आँसू सौंप डाले हैं
उस की तक़लीद ने
मुझे
दूसरा अजीब आदमी बना दिया है

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मुस्तफ़ा अरबाब 1967 में सिंध, पाकिस्तान के ज़िला मीरपुर ख़ास के एक गाँव में पैदा हुए. लिखने की शुरुआत 1984 में कहानियां लिखने से हुई. फिर शायरी की तरफ़ तवज्जोह दी. पहले ग़ज़लें और पाबन्द नज़्में और फिर नस्री नज़्मों की तरफ़ रुझान हुआ. 1999 में उनकी नस्री नज़्मों का पहला मजमूआ ख़्वाब और आदमीछप कर सामने आया. नई किताब पा-बुरीदा नज़्मेंइसी साल आने वाली है. हम बहुत जल्द और के पढ़ने वालों के लिए उनकी इन नज़्मों से भी इंतिख़ाब पेश करेंगे. मुस्तफ़ा अरबाब उर्दू नज़्म में अपनी एक अहम पहचान बना चुके हैं. और हिंदी के लिए इन नज़्मों का इंतिख़ाब उन्होंने ख़ुद किया है.