कोई चीज़ रख्खी के पेट पर फड़ से गिरी। रख्खी कुनमुनाई और आँखें खोलने की कोशिश करने लगी। फिर एक ज़्यादा वज़नी चीज़ आकर छाती पर गिरी और साथ ही एक क़हक़हा सुनाई दिया। अब रखी की आँख खुल गई। उसने गली के नुक्कड़ पर कल्लू को देखा जिसने रख्खी से आँखें मिलाते ही एक फ़ुह्श फ़िक़रा चिपकाया और सड़क की भीड़ में ग़ायब हो गया।
रख्खी ने अपनी छाती पर से ”चीज़” उठाई। ये चार केलों का एक गुच्छा था। इस पर निगाह पड़ते ही रखी खुल गई और बेताबी से एक केला छील कर मुँह में रख लिया और दो-तीन बार इधर-उधर मुँह मार कर निगल गई। फिर दूसरा केला छीला और आधा दाँत से काट कर ज़रा मज़े लेकर खाने लगी। इतने में कुछ ख़याल आया। जल्दी से रखी ने इसी तरह लेटे-लेटे इधर-उधर टटोला तो एक नारंगी हाथ लगी। नारंगी को देखते ही उसके दिल की कली खिल गई। दस-बारह रोज़ बीमार रहने के बाद ऐसा ख़राब मुँह का मज़ा हो गया! ऐसे मौक़े पर नारंगी का मिल जाना! रखी सोचने लगी कि ये खट्टी-खट्टी नारंगी नमक-मिर्च के साथ खाई जाती तो? मगर नमक-मिर्च इस वक़्त कहाँ? मजबूरन रख्खी नमक-मिर्च को याद करके एक फाँक मुँह में रखने लगी और उसको ख़ूब चटख़ारे लेकर खाने लगी।
घड़घड़ करती सामने सड़क पर ट्राम निकली। उसमें एक साफ़-सुथरी लड़की, स्याह किनारे की उजली साड़ी बाँधे बैठी थी। उसकी निगाह इधर पड़ गई तो उसने देखा कि बग़ल की पतली सी गली में कुछ दूर एक दुकान के आगे एक तख़्ता-सा निकला हुआ है, जो ज़मीन से बमुश्किल दो फ़ुट ऊँचा होगा। उसके नीचे एक मैली गंदी, ज़र्द औरत बड़े आराम से लेटी नारंगी की फाँकें खा रही है। चेहरे पर ऐसा इत्मीनान है गोया वह आबादी के किनारे किसी पुर-सुकून मकान के ड्राइंगरूम में सोफ़े पर इत्मीनान से लेटी हो। लड़की जब तक रख्खी को देख सकी, देखती रही। रख्खी ने भी उस पर एक सरसरी निगाह डाली। उसकी साड़ी और साफ़-सुथरी गर्दन को ज़रा ग़ौर से देखा और फिर बिला-इरादा वह अपनी गर्दन मल-मल कर मैल की पत्तियाँ छुड़ाने लगी।
रख्खी उठकर बैठ गई और अंगड़ाई के लिए दोनों हाथ ऊपर उठाना चाहे मगर ऊपर इतनी जगह ही न थी। रख्खी ने ज़रा बेचैन होकर बदन को एक बल दिया और जल्दी से अपने दोनों हाथ दाहिनी तरफ़ फेंक दिए। फिर पीठ में एक बल देकर अंगड़ाई ली मगर फ़ौरन ही एक सिसकी भरकर सीधी हो गई और घबराकर पीठ पर हाथ फेरा। देखती क्या है कि उसके सिर के कुछ बाल चेचक के सूखे दानों में चिपक गए हैं। फिर उसने सिर पर हाथ फेरा तो सिर को चिकट्टा पाया।
मैल था कि बदन को खाए जा रहा था। रख्खी कुछ ऐसी घबराई कि बिलबिलाकर अपने बिल से बाहर निकल आई, खड़ी हुई थी कि चक्कर आ गया। उसने जल्दी से दुकान के पटरे पकड़ लिए, फिर ज़रा सँभल कर पास वाले नल से पानी पिया और सोचने लगी कि कहाँ चलकर नहाना चाहिए।
जब तंदुरुस्त थी तो साफ़ साड़ी लेकर दरिया पर जाती, वहाँ मैली साड़ी धोती थी, फिर जी भरकर नहाती थी। इधर बारह रोज़ तक बीमार रही। इतने दिनों तक मैली गंदी पड़ी रही। पहले बच्चा हुआ, उसका बंदोबस्त किया ही था कि चेचक निकली। इसमें आठ रोज़ तक पड़ी रही। बीमारी ऐसी थी कि किसी को बता नहीं सकती थी। जो कोई पूछता, उससे कह देती कि बुख़ार है, कुनैन खा रही हूँ। ग़नीमत हुई कि चेचक ने चेहरे और हाथों पर क़ब्ज़ा नहीं जमाया, वरना जहाँ पड़ी थी वहाँ से अलग निकाली जाती और जो यार-आशना थे, वो अलग साथ छोड़ देते।
बारह रोज़ बीमार रही। अच्छे लोग ऐसी बुरी औरत के क़रीब क्या भटकते, बुरे लोगों ने उसकी ख़बर ली। पूरन ने दुकान के नीचे पड़े रहने दिया। महावीर, कल्लू ने दूध लाकर खाने-पीने की ख़बर ली। ख़ैर, बुरे दिन कट गए। दो-चार रोज़ में फिर गालों पर रौनक़ आ जाएगी और फिर वही पार्क की तफ़रीहें होंगी और निगाहों को रिझाना।
कहाँ चलकर नहाना चाहिए? दरिया इतनी दूर है कि इसका ख़्याल ही फ़ुज़ूल है। महावीर और किलो मज़दूरी पर गए होंगे और उनके घरों में ताले पड़े होंगे। वो लोग होते भी तो उनके यहाँ नहाने की जगह कहाँ? वो आप नल पर नहाते हैं। चलो नलघट चलें।
कारपोरेशन की तरफ़ से एक बड़ा सा ग़ुसलख़ाना बना था। रख्खी उसको नलघट कहा करती थी और कभी-कभी जब देर हो जाती तो दरिया के बजाय नहाने-धोने वहीं चली जाती थी। उस वक़्त उसी तरफ़ चली। रास्ते में ये सोचती जाती थी कि नहाकर पहनूँ क्या? एक साड़ी पहने हुए हूँ और इसके जोड़ की जो साड़ी थी वो बच्चे के साथ गई।
रख्खी डगमगाकर चल रही थी। अगर नहाने की तमन्ना उसके सिर पर ऐसी मुसल्लत न होती तो शायद उसको उठते भी बुरा लगता। लेकिन इस वक़्त तो ये ख़याल दिल में घुसा हुआ था कि अगर मैं नहा लूँ तो मैल, बीमारी, कमज़ोरी और बदन की बेरौनक़ी सब कुछ दूर हो जाए और आज ही पार्क के क़ाबिल हो जाऊँ। इस ख़याल ने उसको ऐसी हिम्मत दी कि पाँव काँप रहे थे मगर वह आगे बढ़ी चली जा रही थी। थोड़ी दूर चली थी कि बदन पर एक दम से चींटियाँ-सी रेंगती मालूम हुईं। ये खुजली… वो खुजली… सारे बदन में खुजली ही खुजली। तौबा! ये सब मैल है और कुछ भी नहीं। अगर जल्दी मैल दूर न हुआ तो मोर्चे की तरह मेरे बदन की रंगत-ओ-रोहत खा जाएगा।
रख्खी का ‘नलघट’ सामने आया। कुछ लोग कपड़े धो रहे थे। पानी की बूँदें दीवार के ऊपर उड़-उड़ कर धूप में चमक रही थीं, मोती की जैसी बूँदें — ये सब मैल साफ़ कर देंगी। कहीं साबुन भी मिल जाता!
रख्खी अंदर घुसी। एक मोटी सी औरत उकड़ूं बैठी आगे की तरफ़ झुकी कपड़े ज़मीन पर पटक रही थी। एक छोटी-सी लड़की पास बैठी अपने छोटे-छोटे हाथों से साबुन का फेन इकट्ठा करके टीला बना रही थी। मगर अधबना टीला ऊँचा करती… और इधर पानी की दो-एक बूँदें गिरकर उसकी सारी मेहनत अकारथ कर देतीं। ये फिर अपने काम में मशग़ूल हो जाती। दूसरे कोने में दो औरतें बदन मल रही थीं। एक तरफ़ एक लड़की नहाकर साफ़ कपड़े पहन रही थी।
रख्खी ने अंदर क़दम रखा ही था कि सबने फ़ौरन उसकी तरफ़ देखा और सबने बहुत बुरा मुँह बनाया। रख्खी की हिम्मत उनकी निगाहों को देखकर कमज़ोर पड़ गई।
यह नफ़रत क्यों? क्या ये जानती हैं कि मैं कौन हूँ? कैसे जानने लगीं? कोई मेरे माथे पर मेरा पेशा लिखा हुआ है?
रख्खी (मोटी औरत से): “बहन, ज़रा मैं नहा लूँ।”
मोटी औरत ने पलट कर उसकी तरफ़ बड़ी तेज़ नज़रों से देखा और फिर हाथ झटक कर बोली,
“भाग-भाग मलेच्छ! इसके पास से बू कैसी आ रही है!”
सब औरतें उधर ही देख रही थीं। एकदम से बोल उठीं:
“रे! तेरे पास कैसी बू आ रही है? अलग-अलग!”
“उधर से जा!”
“दरिया पर जा, वहाँ जाकर नहा।”
“जाती है कि निकालूँ?”
“हट यहाँ से हट, इसको दिक़ है। इसकी सूरत तो देखो!”
मोटी औरत —
“बिना पुलिस के नहीं जाएगी!”
रख्खी उनकी चाऊं-चाऊं से घबरा गई। एक को जवाब देने लगती कि दूसरी भिड़ जाती। आख़िर रख्खी को ग़ुस्सा आ गया। उसके जी में आ रहा था कि इन सबका मुँह नोच लूँ, बाल ख़ूब नोच लूँ और बन पड़े तो काट खाऊँ।
इतने में मोटी औरत उठी और उसने अपनी बच्ची का बनाया हुआ साबुन के फेन का टीला हाथ में लेकर रख्खी के मुँह पर खींच मारा। रख्खी की आँखों में मिर्चें-सी लगने लगीं। उसने घबराकर साड़ी का पल्लू आँखों पर रख लिया और बड़ी बेबसी से चिल्लाने लगी। दोनों औरतें और लड़की क़हक़हा मार कर हँसने लगीं।
रख्खी अच्छी होती तो ऐसी आसानी से क्यों भागती? बल्कि मोटी औरत को तो उसके किए की सज़ा दे ही देती, मगर अब उसे भागने के सिवा कोई चारा नज़र न आया। घबराई हुई बाहर निकल आई। आँखों में ऐसी तकलीफ़ थी कि मैल-कुचैल, नहाना-धोना सब भूलकर बाहर भाग आई। नलघट को बड़ी मुश्किल से एक आँख खोल कर इधर-उधर देखा तो दो सौ गज़ के फ़ासले पर एक और नल था। रख्खी दौड़कर उधर गई। पानी से आँखों को ख़ूब धोया। जब ज़रा आराम मिला तो कुछ सोचकर इधर-उधर देखने लगी।
एक दुकान पर एक आदमी पंखा मुँह पर रखे सो रहा था। उसके पास एक नौजवान, सफ़ेद कुर्ता पहने हुए बैठा, नींद भरी आँखों से रख्खी को तक रहा था। कुछ दूर एक कपड़े वाले की दुकान पर एक मियाँ साहब धूप से बचने को रूमाल मुँह पर डाले खड़े भाव-ताव कर रहे थे। उनके क़रीब रिक्शा वाले पसीने और मैल में सने खड़े थे।
रख्खी ने दुकानदार नौजवान को एक बार देखा और कुछ इरादा करके अपनी साड़ी समेटी, मगर फिर झिझकी। आख़िर जी कड़ा करके एक बार नल के नीचे बैठ गई और एक हाथ से खटका दबा दिया। कमज़ोरी की वजह से खटका अच्छी तरह नहीं दबा, मगर फिर भी थोड़ा-थोड़ा पानी उसके सिर और पीठ पर लगा।
नौजवान चिल्लाया:
“हाय हाय… हाय हाय!”
नौजवान का बाप (चौंक कर):
“बाज़ार में नहाएगी! अरी ओ बेहया, क्या करती है?”
इस सड़क पर शरीफ़ दुकानदार थे। सब बेतहाशा चिल्लाने लगे:
“मस्तानी है!”
कपड़े की दुकान के मियाँ साहब भाव-ताव छोड़-छाड़ उधर दौड़ पड़े। पास आकर उन्होंने रख्खी की उँगलियों पर छड़ी मारी। रख्खी के हाथ से नल का खटका छूट गया। नल बंद हो गया। अब उन्होंने रख्खी की पीठ में छड़ी चुभोई और चिल्लाए:
“चल हट सड़क पर से! बड़ी आई है नहाने!”
नल के गिर्द मजमा लग गया।
छड़ी की नोक जैसे गड़ी, रख्खी ने तकलीफ़ से मुँह खोल दिया। आँखें सिकोड़ लीं और मुँह से एक छोटी-सी चीख़ निकल गई, मगर फिर फ़ौरन ही दाँत भींच कर दोनों हाथों से नल पकड़ लिया और जमकर वहीं बैठ गई।
बड़े मियाँ:
“अरे हट्ट हट्ट… अरे हटती नहीं?”
“क्या करना चाहती है?”
“क्या यहाँ नहाएगी?”
“कलकत्ता में कितनी बेहयाई है, राम-राम!”
“और साड़ी तो देखो कैसी महीन है!”
“शक्ल चुड़ैलों-सी, मिज़ाज परियों का! आती हैं नहाने!”
बड़े मियाँ ने हिम्मत करके एक बार ज़ोर से छड़ी घुसाई और फिर हारकर हाथ ढीला कर लिया। रख्खी ने फिर नल का खटका दबाया।
यह देखकर रिक्शावाले, जो मजमा चीरकर अंदर आ गए थे, बोले:
“क्या है क्या… नहा भी लेने दीजिए!”
“नहा लेने दीजिए बेचारी को!”
“गर्मी सख़्त है!”
मजमे से एक ने आवाज़ कसी:
“चलो मेरे घर में नहाओ, ऐसा ग़ोता दूँ…!”
एक साहब तहमद बाँधे खड़े तमाशा देख रहे थे। एक बार जोश में आगे बढ़े। देखने वालों को लगा कि दो-चार हाथ तो इस बेहया औरत पर झाड़ ही देंगे — कि इतने में पुलिसवाला न जाने किधर से अंदर घुस आया और उसने रख्खी का हाथ पकड़कर एक झटके में उसे अपनी जगह से उठाया, मजमे से बाहर कर दिया और फिर फ़ातिहाना अंदाज़ में बोला:
“नहीं हटती थी… एक औरत को नहीं भगा सकते?”
मजमे में तालियाँ और सीटियाँ बजने लगीं। क़हक़हे उड़े और आवाज़ें कसी गईं। रख्खी हारे जनरल की तरह सर झुकाए, पीठ सहलाती आगे बढ़ी। उसने पलटकर सिपाही को देखा और फिर तहमद वाले शख़्स को देखा। इन हुज़्ज़त को तो उसने पहचान लिया। एक दिन उनसे भी दोस्ती रह चुकी थी। मगर रख्खी को उनका नाम याद नहीं था, वर्ना उस वक़्त पुकार कर ज़लील कर देती।
रख्खी की आँखों से आँसू बह निकले। लोग कैसे ज़ालिम होते हैं! ऐसी ही ग़ैरत आती थी तो आँखें बंद कर लेते। मुझे तो नहाने देते। और ग़ैरत कैसी? मैं साड़ी तो बाँधे हुए थी! यही ग़ैरतमंद लोग जब ज़नाने घाट पर औरतें नहाती हैं, आकर परा बाँध कर बैठते हैं और ख़ूब घूरते हैं — उस वक़्त ग़ैरत नहीं आती!
रख्खी को अपना बचपन याद आने लगा। उसकी माँ दोपहर को उसके लिए गुड़ियाँ बनाती थी और शाम को पाबंदी से नहला-धुलाकर साफ़ कपड़े पहनाती थी। अगर कपड़े खेल-कूद में मैले हो जाते तो बहुत बिगड़ती थी।
फिर रख्खी को अपना बच्चा याद आया जो बारह दिन हुए, दो बजे रात को पैदा हुआ था। लड़का था। बेचारे ने एक ही “कहाऊँ” किया था कि रख्खी ने उसका मुँह, उसकी नन्ही गर्दन और उसका सारा बदन अपनी साड़ी से लपेट दिया — और फिर वह पोटली एक गली में ले जाकर नाले का मुँह खोल कर अंदर डाल दी।
इस काम में सोहनी ने भी हाथ बँटाया — और क्यों न बँटाती? उसको भी किसी न किसी दिन रख्खी की मदद की ज़रूरत होगी। यूँ ही लोग एक-दूसरे के काम आते हैं। हाँ… बच्चा गया और साड़ी की साड़ी भी। इस वक़्त तो नहाकर पहनने को आती।
सर और पीठ के भीग जाने से नहाने का शौक़ और तेज़ हो गया — बल्कि अब तो रख्खी को एक तरह की ज़िद आ गई कि कुछ हो, नहाकर रहूँगी। चलो, दरिया चलो।
लेकिन वो दूर है। दूर ही सही, क्या होगा क्या? रास्ते में थककर गिर पड़ूँगी? मर जाऊंगी — और अच्छा है, ऐसी ज़िंदगी से निजात मिलेगी।
एक चाय की दुकान पर कुछ बेफ़िकरे बैठे क़हक़हे उड़ा रहे थे। उनको देखकर रख्खी सोचने लगी कि काश ऐसा होता कि ये लोग पुकारते:
“आ हा हा… कौन जा रहा है?”
“एक नज़र इधर भी!”
मैं जवाब तो न देती मगर अपनी लगावट वाली निगाह मार देती और फिर इठलाती, क़दम फेंकती आगे बढ़ती। फिर कोई कहता:
“अरे ज़रा इधर तो आ जा! अरे बात तो सुन!”
“सुन तो सही, कोई तुझे खा जाएगा क्या?”
मैं पलट पड़ती और कहती:
“क्या शोर मचा रखा है! मैं जा रही हूँ दरिया — नहाने। कैसी गर्मी है! मैल है कि बदन को खाए जा रहा है!”
चायवाला कहता:
“आओ यहाँ! यहाँ नहला दूँ।”
मैं कहती:
“बातें न बनाओ।”
फिर खुद ही गुनगुनाने लगती:
“हटो जाओ, बातें न बनाओ…”
चायवाला:
“तुम्हारी जान की क़सम, इधर देखो — मकान के अंदर हौज़ बना है!”
चायवाला मुझको ख़ुशामद दर-आमद करके अंदर ले जाता, तो वहाँ सच-मुच एक हौज़ होता। फिर चायवाला मुझको एक साड़ी लाकर देता। अब मैं चायवाले से बाहर जाने को कहती, मगर वो न मानता और ज़िद करता कि मैं तो अंदर ही ठहरूँगा। आख़िर बड़ी ख़ुशामद के बाद बाहर जाता और मैं ख़ूब नहाती, फिर बालों में कंघी करती और साड़ी पहनती।
रख्खी सोचने लगी कि अगर ये ख़्वाब पूरा हो जाए तो क्या कहना! बदन कैसा हल्का-हल्का हो जाएगा — गोया दुबारा ज़िंदगी मिल जाए!
सूरज डूबने पर था और पार्क की चहल-पहल शबाब पर थी। ताल के इस पार छोटे-छोटे बच्चे तीतरियों की तरह इधर-उधर उड़े-उड़े फिर रहे थे और ग़ुल मचा रहे थे। एक बच्चा एक कुत्ते की रस्सी पकड़े टहला रहा था और दूसरा कुत्ते की पीठ पर बबुए को सवार कर रहा था। उनकी आयाएँ घास पर टाँगें फैलाए आधी लेटी और आधी बैठी अपनी-अपनी बक-बक में खोई हुई थीं।
वहाँ से दूर पर दो-तीन नौजवान मर्द और औरतें नुमाइशी कपड़ों में लिपटे एक-दूसरे को अपने फ़िक़रे और क़हक़हे सुना रहे थे। दूसरी तरफ़ दस-पंद्रह सफ़ेद-पोशों का मजमा था, जिसमें से चार-पाँच ताल में वुज़ू कर रहे थे। एक मौलवी साहब ताल के पास अपने बारह बरस के लड़के को लिए दो-ज़ानू बैठे नमाज़ के वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे। एक तरफ़ एक कांस्टेबल अकेला वक़्त गुज़ारी के लिए टहल रहा था।
इस मजमे में रख्खी आ निकली। उसने अपनी मंज़िल तय कर ली थी। दरिया क़रीब था। बंदरगाह पर खड़े जहाज़ दिखाई दे रहे थे। जहाज़ पर काम करने वाली मशीनों की छप-छप और क़ुलियों की चीख़-पुकार साफ़ सुनाई दे रही थी।
दरिया क़रीब था लेकिन पार्क की इस चहल-पहल और इस फ़राग़त से भरपूर समाँ ने रख्खी को ऐसा पकड़ा कि वह थकी-हारी ताल के किनारे बैठ गई और अपने दोनों पाँव घुटनों-घुटनों पानी में फैला दिए। नीले ताल के अंदर फैली हुई सब्ज़ बेल के बीचों बीच शाम के सुर्ख़ बादलों का अक्स था। ताल ऐसा दिलकश था कि बस जी चाहता था कि देखते ही जाओ।
रख्खी ज़रा देर तो खोई-सी बैठी रही, फिर कुछ सोचकर उसने जल्दी-जल्दी इधर-उधर देखा और “छम” से पानी में उतर गई।
कांस्टेबल ये देखकर चिल्लाता हुआ दौड़ा। नमाज़ियों ने गुल मचाया। मौलवी साहब ने “लाहौल” पढ़ी और आयाएँ चौंक कर खड़ी हो गईं। सिपाही घबराया हुआ ताल के किनारे दौड़ रहा था और चिल्ला रहा था:
“अरी चालान हो जाएगा, जेल में डाल कर सड़ा दी जाएगी!”
वुज़ू करने वालों को भी ग़ुस्सा आ गया। वे कांस्टेबल को डाँटने लगे:
“उसे निकाल! अरे निकाल!”
कांस्टेबल देर से यही इरादा कर रहा था मगर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि निकालूँ तो कैसे निकालूँ।
रख्खी अपने ऊपर ये नरग़ा देखकर घुटनों-घुटनों पानी में सीना तान कर खड़ी हो गई। जिस्म के सारे उतार-चढ़ाव साड़ी पर उतर आए। बीमारी ने चेहरा ज़रूर चूस लिया था, मगर बदन के कुछ बल बहुत कुछ बाक़ी थे।
ख़ुशपोश नौजवानों को यह देखकर अपने साथ की लेडियों के सामने शर्म आने लगी। वे लोग उधर पीठ फेरकर खड़े हो गए।
रख्खी के इस ना-गहानी हमले से हमला-आवर ठिठक गए। रख्खी के होठों पर दिन में पहली बार कामयाबी नाचने लगी। अब उसने दूसरा हमला किया — वह भीड़ को भूल कर इत्मीनान से साड़ी हटाकर बदन मलने लगी।
आयाओं ने बच्चों को खींचा। मौलवी साहब ने अपने लड़के को, जो टकटकी बाँधे उधर देख रहा था, चटाक से एक थप्पड़ रसीद किया। वह भौं-भौं रोने लगा। वुज़ू करने वालों ने गर्दनें झुका लीं और वुज़ू फिर से शुरू किया।
पुलिसवाला उस औरत को पागल समझ कर ख़ामोशी से उसकी हरकतें देखता रहा। रख्खी हमलावरों की पिटाई देखकर बहुत ख़ुश हो गई मगर उसको डर लगा हुआ था कि कहीं यह कांस्टेबल अपने और साथी न बुला लाए और मुझे पकड़वा न दे।
इसलिए वह जल्दी-जल्दी नहाई और फ़तहयाब होकर निकल आई। बदन पर साड़ी चिपकी हुई थी और रख्खी इठलाती हुई अपना पसंदीदा गीत “राजा जानी रे…” गाती एक तरफ़ को चल खड़ी हुई।
पुलिसवाला सोचता रह गया कि इस पागल को पकड़ूँ या न पकड़ूँ। मर्द घूम-घूम कर देख रहे थे कि कहीं ये पगली ऐसा तो नहीं करती कि अपनी साड़ी निचोड़ कर सूखने को फैला दे।
हयातुल्लाह अंसारी उर्दू के बेहतरीन अफ़साना-निगारों में से एक हैं। वो लखनऊ में 1912 में पैदा हुए और 1999 में उनका इन्तिक़ाल हुआ। ‘भरे बाज़ार में‘ उनकी मशहूर कहानी है, जो कि इसी नाम से छपने वाले उनके कहानी-संग्रह से ली गई है। ये उनका पहला अफ़सानों का मजमूआ था। ‘भरे बाज़ार में‘ एक ही थाल में साथ साथ परोसे गए मज़हब, सच्चाई, ईमान्दारी, हया, तहज़ीब और इंसानियत में उंडेल दी जाने वाली कड़वाहट की सी हैसियत रखने वाली कहानी है। जब भी इंसानी ख़ूबसूरती की सफ़ाई के उजले फूल आपकी निगाहों पर बरसाए जाएंगे। उर्दू की ऐसी कहानियाँ मक्खियों की शक्ल में आकर उन पर बैठ जाएंगी। अब आप उनकी भिनभिनाहट से लाख हलकान हों, मगर इनसे छुटकारा पाना मुश्किल होगा, शर्त बस इतनी है कि आपकी देखने सुनने की क़ाबलियत अब तक छीनी न जा चुकी हो।