किताब-उन-नफ़्स में लिखी गई नज़्म
चकरा कर गिरता है आदमी
आईने की तरह
फ़र्श पर
उस के अंदर
ख़ुद ही फ़रामोश किया हुआ दिल
टूट जाता है
फिर जुड़ता नहीं
कभी नहीं जुड़ता
लाख कोशिश करो
ये पानी से बना आईना है
इस में हम अपना अक्स देखते हैं
इसी में
हंसते रोते हैं
इस के सामने हम अपना अंदर
खोलने से डरते हैं
कहते ही नहीं
कह नहीं सकते!
कहें
तो रो पड़ें
रोने से डरते हैं शायद
मुबारक हैं वो आँखें जिन्हें रोना नसीब है
ये आरसी
निहायत नज़दीक
और बिल्कुल सामने है
हमारा हाथ क्यूँ काँप रहा है
साँस क्यूँ
रुक रहा है
ये आईने में जलता अलाव कैसा है?
क्या इस अलाव को
हम सहन नहीं कर सकते
या सहार नहीं सकते
सच तो ये है
इस का हम में साहस नहीं
मुक़ाबिल आते ही
इस आईने के अलाव का ताव
हम बर्दाश्त नहीं कर सकते
ख़ुद को बर्दाश्त करने का हुनर
ऐसी ही एक मोहलिक चीज़ के क़रीब रह कर
सीखा जा सकता है
यहीं से पाया जा सकता है
अपना आप
पाया जा सकता है
नया जन्म
नया आदमी
और एक दर्द-मंद दिल
हमें इस के क़रीब रहना चाहिये
बहुत क़रीब
इस की तपिश
अपनी साँसों में
उतारते हुए
यहाँ तक कि हम
गिर कर उठ सकें
अपने ही अंदर
٠٠٠
शह्र में तुम्हारे आने से
शह्र में तुम्हारे आने से
आसमान बादलों से भर गया है
रुको
कुछ देर
और रुको
ज़रा सुनो बंजर ज़मीं के नौहे
और मेरी आँखों की
प्यास को सुनो
शह्र में तुम्हारे आने से
शह्र खिल उठा है
उदासी सरक कर
शह्र के किनारे पर
खजूरों के बाग़ में
चली गई है
तुम्हारे होने तक
वो पलट कर नहीं आएगी
शह्र में तुम्हारे होने से
आसमान
बादलों से भर गया है
मेरा दिल
आँसुओं से
शायद बरस पड़ें
कई दिनो से रुके
आसमान से बादल
या
मेरी आँखों से
आँसू
٠٠٠
उस दिन
उस दिन यूँ ही अचानक
मैंने पाया ख़ुद को
दोस्तों के दर्मियान
दो बीमार थे
एक उदास
जो बीमार थे
उन की बीमारी का सुन कर
मुझे दुख हुआ
क्या बताऊँ !
ये बीमारी आदमी को
खाती रहती है
पहले वो उदास होता है
फिर बीमार
दुख ही
उस के जीवन का साहस है
यही ख़ुशी
यही ज़िंदगी का मरकज़
यही सुगंध
यही अपना-पन
तुम कहो
कैसे हो?
٠٠٠
डूबता हुआ आदमी
डूबता हुआ आदमी
डूबते हुए
सर-ता-पा
ज़िंदगी और मौत की हैरत से
भर जाता है
पानी
ज़िंदगी की
दोहरी मानवीयत को मुन्कशिफ़ करता है
ये उस के बदन में से
तमाम उम्र जमा की हुई
नफ़रत को निकाल कर
अपनी जगह बनाता है
पानी की सतह
बुलंद हो कि अमीक़
मौत तेज़ रफ़्तार मछली से पहले
आदमी तक पहुँच जाती है
ज़िंदगी के बर-अक्स
ये इस तआक़ुब में
लगी रहती है
मिट्टी की तफ़्सीर मिट्टी है
पानी की तफ़्सीर पानी
तख़्लीक के उस पल की तफ़्सीर
कोई एक नहीं
जब पानी के चंद क़तरे
बदल जाते हैं
हज़ारों क़तरों में
जिन में वो
तैरता हुआ
इस दुनिया में
आता है
٠٠٠
मुहब्बत की कहानी
ये कहानी
मैंने शुरू की थी
इसे
ख़त्म करने का इख़्तियार
मेरे पास नहीं
मुझे
एक जलती हुई तीली में
पूरा जंगल
जलता हुआ दिखाई देता है
या
वो मकान
जो अभी ख़्वाबों से ख़ाली नहीं किया गया
मुझे ख़्वाब देखना
और नज़्म लिखना
किसी ने नहीं सिखाया
फ़िल्हाल
मैं मुहब्बत का
ज़िक्र नहीं कर रहा
मुहब्बत
नज़्म तक कर्ब
जंगल तक बादल
और ख़्वाब तक
ताबीर पहुँचाने के लिये
ख़ून पसीना एक कर देती है
एक दरिया को
अगर पानी से नहीं भरा जाता
तो उसे
ख़ून से भर दिया जाता है
और आब-दार कुल्हाड़ी
अपने दुश्मन को
तोहफ़तन भेज देनी चाहिये
नफ़रत
दिल और दीगर अहम अशिया को
रंग-आलूद कर देती है
जिस दिन
कुल्हाड़ी से रंग उतारा जाएगा
मुहब्बत की कहानी
ख़त्म हो चुकी होगी
٠٠٠
सुर्ख़ फूलों की इक फ़स्ल
जहाँ पड़ता हो
जनरल की टोपी का साया
वहाँ कुछ देर
अपनी साँसे रोक लो
जहाँ पड़ता हो
किसी टैंक का साया
वहाँ सुर्ख़ फूलों की
इक फ़स्ल उगाओ
जहाँ पड़ता हो
सर-निगूँ होते परचम का साया
वहाँ आँसुओं को बचाए रखो
अपने बच्चों के लिये
जहाँ पड़ता हो
बहुत से सरों का साया
वहाँ जब्र की दीवार को
हिलते सुनो
जहाँ पड़ता हो
नफ़रत का साया
वहाँ एक दिया जलाओ
और इंतिज़ार करो
मुहब्बत
नफ़रत के साए से निकल कर
तुम्हें गले लगाने के लिये
उतावली है
٠٠٠
दुपट्टों में लिपटी लड़कियाँ
मुसीबत हैं ये
दुपट्टों में लिपटी लड़कियाँ
जिन्हें सिर्फ़ अंधेरे में
खिलखिला कर हंसने की इजाज़त है
जिन्हें इजाज़त है
छत से चाँद देखने की
और सितारे
जिन में वो
ज़ियादा दिलचस्पी नहीं लेतीं
जिन्हें इजाज़त है
दरवाज़े की ओट
खिड़की
या आईने से
कुछ ऐसा देखने की
जिस की इजाज़त न हो
लेकिन वो कहाँ मानती हैं
मुहब्बत
और दूसरे ख़तरनाक मशाग़िल को
ख़ातिर में नहीं लातीं
और ख़ामोशी से
घर रवाना होती हैं
मर्द की मर्दानगी
और वक़्त की संग-दिली को
झेल जाती हैं
उलूही पुर-असरारियत से देखती हैं
जब कोई उन की तरफ़
मुतवज्जा न हो
मुस्कुराती हैं
ढकी-छुपी मुहब्बत को
निरवार करती हैं
और
बहुत से आँसू बहाती हैं
बहुत से आँसू
रुलाने के लिये
٠٠٠
उन आँखों की याद
जिस ने मेरे दिल को
अपनी आँखों की दहक से दाग़ दिया
ये उस का ज़िक्र नहीं है
वो आँखें
जिन में ख़्वाबों के
कई जुगनू जगमगाते हैं
ये उस का ज़िक्र नहीं है
जिस के होंट
मुझे आतिशदान के क़रीब
चूमने थे
ये उस का ज़िक्र नहीं है
जिस ने
फूलों से
जंगलों से
सितारों से
पानी से
सरगोशी में एक बात कही
वो सब
उसी के हो गए
जब धुआँ दरख़्तों से
सीढ़ियाँ चढ़ने का हुनर
सीख चुका था
आसमान से
एक रात उतरी
ये उस का ज़िक्र नहीं है
ये एक ठहरी हुई सुबह की कहानी है
जो आतिशदान पे ख़त्म हुई
जिस की राख में
एक नज़्म थी
और
उन आँखों की याद
٠٠٠
ख़्वाब में खिले सियाह फूल
एक औरत नींद में
तीन लड़कियों को
ख़्वाब देखते हुए
देख रही थी
पहली लड़की
आईने के सामने
दोनों हाथों में
अपनी छातियाँ थामें
खड़ी थी
दूसरी लड़की
आईने में
बच्चे को घुटनों के बल
हुमकते हुए देख कर
हंस रही थी
और तीसरी लड़की
आईने के सामने
लड़के के क़रीब
ख़ामोश थी
लड़के की आँखों में
घना अंधेरा था
जिस में
सियाह फूल खिले हुए थे
औरत ने अपने लिये
एक सियाह फूल पसंद किया
और नींद में मुस्कुराई
रात और नींद की गिरह
उस की मुस्कुराहट से खुल गई
खुल गया ख़्वाब का दरवाज़ा
औरत
उसी दरवाज़े से
बाहर निकल गई
और फिर ज़िंदगी को
कहीं नज़र न आई
٠٠٠
दो फूल
तुम ने कहा था
पहाड़ों के उस पार समुंदर में
जब सूरज डूब जाएगा
मैं तुम्हें याद करूँगी
तुम ने कहा था
जब पहाड़ सो जाएगा
समुंदर सो जाएगा
और गहरे पानियों में
एक कश्ती रुकेगी
मैं तुम्हें याद करूँगी
हमारी कहानी
भूल जाने के बाद
वक़्त एक और कहानी गढ़ लेगा
तुमने कहा था
जब रात तुम्हारी आँखों की तरह
गहरी हो जाएगी
मैं रुकी हुई कश्ती में
तुम्हारे ख़ेमे में आऊँगी
तुम्हारे सीने पर
दो फूल रखने
जो मेरे
सीने पे खिले हुए हैं
٠٠٠
जिंदगी
काठ कबाड़ में
बिक जाएगी ज़िंदगी
बिक जाएगी
अख़बार की रद्दी में
अदालत के नोटिस में
चोर बाज़ार
चली जाएगी ज़िंदगी
कोई लेने वाला नहीं होगा प्यार
सब धुतकारने को तुले होंगे
जो ख़ुद
धुतकारे गए हैं
यहीं कहीं
दीवारों से झड़ने लगेगी
ख़ुश्क नालियों में
सटी हुई काई की तरह
वहीं की वहीं
चली जाएगी मुफ़लिस लड़की की तरह
किसी के भी साथ
बाद में इसे बुलाया जाएगा
धोके से
सुलाया जाएगा
अपने ही ख़्वाबों के काँटों पर
मुहब्बत में
बहुत सस्ते दाम
बिके हुए दिल की तरह
बिक जाएगी ज़िंदगी
नए रूप में
ढालने की तमन्ना करते हुए
इस हाथ से
उस हाथ
चली जाएगी ज़िंदगी
हाथ ख़ाली रह जाएँगे
नज़र नहीं आएगी ज़िंदगी
٠٠٠
हमारा घर
ये पेचीदा राहदारियों वाला
कोई शाही महल नहीं
हमारा घर है
मेरी जान
मैं पहले दरवाज़ा बनाऊँगा
जो मुझ पर कभी बंद न हो
जब आऊँ
मुस्कुरा कर स्वागत करे
या ख़ामोश रहे
फिर दीवारें बनाऊँगा
जिन के दर्मियान
आसानी से साँस लिया जा सके
तुम मेरे पास आ सको
मैं तुम्हारे
एक दीवार मेरे अंदर है
उस की दूसरी तरफ़ दुनिया है
उसे गिराने में
तुम मेरी मदद कर सकती हो
बद-मस्त बादलों के आने से पहले
छत भर आई होगी
जब बारिश थम जाएगी
ख़ुशगवार धूप निकलेगी
मैं तुम से कहूँगा
अब आओ! इस छत के नीचे
आओ!
ये दिन हमारा है
और इस दिन का प्यार
और हल्का-फुल्का ग़ुस्सा
आओ!
कुछ बोलें धीमी आवाज़ में
जो हमारे बच्चों को अच्छी लगे
इस छत के नीचे
जब रात होगी
हम दोनों
अलग-अलग अंदेशों से
तका करेंगे इसे
चुपचाप
٠٠٠
सीढ़ियों से उतरते हुए
सीढ़ियों से उतरते हुए
मैंने पाया
ज़िन्दगी की सफ़्फ़ाकी का ज्ञान
मैंने पाया
मुहब्बत के उल्टे दाँव
निज़ाम की बेरहमी
अपनी ज़िद
और सादगी का ज्ञान
लगा
मैं सीढ़ियों से गिरते हुए
देख रहा हूँ
एक बेटा
अपने बाप को
क़त्ल कर रहा है
मुझे उबकाई आई
दिल बैठ गया
लगा
मेरे हाथ-पाँव
बँधे हुए हैं
उतरते ही
पागल कुत्तों के आगे
डाल दिया जाऊँगा
सीढ़ियों से उतरते हुए
मैंने पाया
ज़िंदगी और मौत का ज्ञान
लगा
उन दोनों से
मेरा कोई तअल्लुक़ है
शायद कोई नहीं
मैंने चाहा
होने
न होने का ज्ञान
और सब्र
ख़ामोशी का ज्ञान
सीढ़ियों से उतरते हुए
वो मेरे साथ थे
मुझे फिर उबकाई आई
मैं बैठ गया
ये सीढ़ियाँ
ख़त्म क्यूँ नहीं होतीं
٠٠٠
मुहब्बत और शायरी
कहीं ज़रूर होगा वो दरख़्त
जिस पर परिंदे नहीं बैठते
जिस के साए में
किसी मुसाफ़िर ने थकन नहीं उतारी
मुझे उस पर फाँसी दी जाए
अपने जुर्म के बारे में
कुछ कह नहीं सकता
कहीं ज़रूर होगा वो कुर्रा
जिसे आदमी की आँख ने
अभी तक नहीं देखा
जिस्म का जश्न मनाती
औरतों के हुजूम में
मेरा सर
तन से अलग किया जाए
मेरे बदन को उस कुर्रे में
फेंक दो
और मेरा सर
बिन्त-ए-शह्र को
मेरी आख़िरी वसीयत के मुताबिक़
तोहफ़े में
पेश करो
वो समझ जाएगी
मुहब्बत और शायरी
कितनी मोहलिक होती है
٠٠٠
दिल का हाल
तुम आदमी के दिल का हाल
कैसे जान लेते हो?
उस के चेहरे से
उस की टूटती आवाज़ से
और?
उस के ख़्वाबों से
आँसुओं से भरी आँखों से
और तुम ?
मैं आदमी के दिल का हाल
जान लेता हूँ
उस की हिरासाँ मुहब्बत
और मशकूक नफ़रत से
और?
और उस के दिल से
जो हमेशा
टूटने पर
तुला रहता है
٠٠٠
अहमद आज़ाद लाड़काना, पाकिस्तान में 1976 में पैदा हुए. यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंध से उर्दू अदब में एम.ए किया. उनकी नज़्में बहुत आहिस्ता लहजे में गहरी और ज़िन्दगी को महीन आंखों से देखती मालूम होती हैं. इस पुर-सुकून और ठहरे हुए लहजे में वो ज़िन्दगी का जो अक्स दिखाते हैं, वो बड़ा पुर-कशिश और अलग दिखाई पड़ता है. उनकी इन कविताओं का इंतिख़ाब उनकी इसी साल आई नज़्मों की किताब ‘सीढ़ियों से उतरते हुए‘ से किया गया है. इससे पहले उनका एक शेरी मजमूआ ‘तेज़ बारिश के दौरान‘ 2008 में छप कर सामने आ चुका है. अहमद आज़ाद नज़्में लिखने के साथ साथ सिंधी से भारत और पाकिस्तान के शायरों की कविताओं का उर्दू तर्जुमा भी करते रहे हैं. ‘और हिन्दी‘ के लिए इन नज़्मों का चयन शायर ओ अदीब नईम सरमद ने किया है, जबकि इन्हें हिंदी लिपि का रूप बख़्शा है उर्दू के एक और अहम शायर नादिम नदीम ने.