आलू और कद्दू सवेरे-सवेरे आ गए। मैं छत पर सो रहा था। दरवाज़े पर खट-खट करने की उन में हिम्मत न थी। दोनों मेरे अब्बे के साए से भी भागते थे। वो हमारे घर के साथ वाले प्लॉट में खड़े हो कर बिल्लियों और कुत्तों की आवाज़ें निकालते रहे। मैं जाग गया, बिल्लियों, कुत्तों की आवाज़ें सुन कर नहीं, मक्खियों की भिन-भिन और काट से। अब्बा और दादी की चारपाईयाँ ख़ाली थीं। उन के बिस्तर भी उठा लिये गए थे। पंखा बंद था मगर उस का तार अभी तक छत से नीचे लटक रहा था। मैंने तार पंखे की मोटर पर लपेट दिया।
नीचे प्लॉट में देखा तो दोनों मुँह उठाए ईंटों के क़दमचों पर बाहें लटकाए बैठे थे, जैसे हग रहे हों।
प्लॉट एक क़िस्म की रोड़ी थी। पूरा कटरा उस में कूड़ा फेंकता। दो जगहों पर खंगराली ईंटों की छोटी-छोटी ढेरियाँ थीं जो प्लॉट के मालिक, मलंगी दीनदार ने, महीनों पहले प्लॉट के अंदर नींव उठाने के लिये मंगवाई थीं, लेकिन आज तक काम शुरू न हो सका था। हम तीनों इस वजह से ख़ुश थे। प्लॉट की उन्हीं ढेरियों की आड़ में बैठ कर तो हम सारा दिन की मंसूबा-बंदी करते थे। शाम की अज़ानों के बाद हम सर जोड़ कर बैठ जाते और तब तक बैठे रहते जब तक कटड़े में दाख़िल होते अब्बे या ताए के खंखारने की आवाज़ सुनाई न दे जाती। शाम को बनाए मंसूबों पर अगले दिन अमल किया जाता। पिछले एक महीने में चार कामयाब मंसूबों के ख़ाके उन्हीं ईंटो पर बैठ कर बनाए गए थे। आज इस महीने के पहले मिशन की तैयारी थी। ये मिशन था क्या, ये सिर्फ़ कद्दू को मालूम था।
“नीचे मर काले बैंगन!”
दोनों मुझे देखते ही चिल्लाए। दोनों के चेहरे पसीनों- पसीने हो रहे थे। मुझे उन पर तरस आया।
“इतनी सवेरे क्यूँ? शाम को नहीं मिलना क्या?
मैंने सिर्फ़ उतनी बुलंद आवाज़ में पूछा जितनी सिर्फ़ वही सुन पाते। कद्दू ने एक नंगी गाली दी और मुझे प्लॉट में फ़ौरी आने को कहा। कद्दू की गाली पर मेरा क़हक़हा छूट गया।
सीढ़ी से नीचे उतरते हुए अम्मी से आँखें चार हुईं। वो सहन में बैठी हुई चूल्हे में लकड़ियाँ झोंकते हुए आँसू बहा रही थी। उस के आँसुओं का सबब धुआँ था या मेरा बाप। मैं बाहर खिसकने लगा तो ख़ौफनाक आवाज़ में पुकारी, “बैंगनी सुन, कहीं मत जाना। रोटी खा के बाप को तन्नूर पर सामान पहुँचा आ, मुझे शेख़नी के घर जाना है।”
मैं उन्हीं क़दमों वापस पलटा। अम्मी को बहुतेरा समझाया कि दोनों डंगर रोड़ी पर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं, बात सुन कर वापस आ जाता हूँ। अम्मी को मेरी पहले कोई बात समझ में आई होती तो अब आती ना! मैंने भी खच-मच जारी रखी। आख़िर हार गई, बोली, “जाओ और उन चमगादड़ों को मिल कर तिन्नी मिंटी वापस आओ। तेरे बाप को आटा, मसाला वक़्त पर न मिला तो टाँगें तोड़ देगा।”
कद्दू और आलू ब-दस्तूर हगने वाली बैठक जमाए हुए थे। कद्दू के हाथ में ग़ुलेल था। उस ने देखते ही मुझ पर तान दिया। धरेक का करतौना मेरे कान के पास से शूँ कर के गुज़र गया।
“अरे काले बिज्जू कभी तो टाइम पे पहुँचा कर।”
“यार अम्मी…”
“पता है, पता है, हर वक़्त अम्मी-अम्मी, अब्बा-अब्बा करता रहता है। बारह का हो गया मगर चूज़ों वाली चूँ-चूँ बंद न हुई तेरी। अब चल, सीधा नहर पे चलना है, बाक़ी बातें उधर तारी लगाते हुए करेंगे। गर्मी से फटी जा रही है।”
मैंने अम्मी की बात उन के दिमाग़ों में घुसाने की कोशिश की। आलू तो फ़ौरन समझ गया और नहर का फेरा दिन के किसी और पहर में लगाने पर राज़ी हो गया, मगर कद्दू, जो उम्र में हम से बड़ा और क़द में लम्बा था, उसी वक़्त निकलने पर अड़ा रहा। बिल-आख़िर तय हुआ कि अब्बे के तन्नूर पर सामान पहुँचाने के फ़ौरी बाद मैं दीनदारों की पुली पहुँचूँगा, जहाँ से तीनों मिल कर नहर को चलेंगे।
नहर पर बड़ी रौनक़ थी। बच्चों और जवानों के साथ-साथ औरतें भी डुबकियाँ लगा-लगा मस्तियाँ कर रही थीं। आलू ने मेरे कान में बताया कि नहाने वालियों में ज़्यादातर हमारी बिरादरी की औरतें हैं। कुछ को मैंने पहचान भी लिया। कद्दू हरामी सादू माछी की लड़की को ताड़ने लगा। वो भी बत्तीसी निकाले उसे घूर रही थी। मैं और आलू पेड़ के नीचे चप्पलें उतार कर कपड़ों समेत नहर में कूद पड़े। कद्दू को कमीज़ उतार कर नहाने की आदत थी। वो सलवार को फुला कर पानी पर तैरने लगा।
आलू ने मुझ से चिमट कर कहा, ”कद्दू यक्की का पार्ट अदा कर रहा है। आज के मिशन की सुनाने आया था और यहाँ माछन को करतब दिखाने में जुट गया है। देख तो कैसे बंदरी की तरह उछल रहा है, देख तो।”
मैंने मुड़ कर देखा तो कद्दू हमारी जानिब ही देख रहा था। मेरे देखते ही उसने सर पानी में डुबा लिया।
हम कितने घंटों तक नहाते रहे, हमें कोई ख़बर न हुई। वो तो जब सादू माछी का घराना रुख़सत हुआ और कद्दू हमारे पास आया तो मालूम हुआ कि सूरज डूबने में चंद ही घंटे बाक़ी रह गए हैं। कद्दू हमें पानी के अंदर ही अंदर घेर कर किनारे की जानिब ले आया। अब हम सीनों तक पानी में थे और हमारी कोहनियाँ किनारों की ईंटों पर टिकी हुई थीं। कद्दू आँखों में पड़ते बाल पीछे हटा कर बोला, “अब सुनो! आज का मिशन आसान भी है और सादा भी। इसलिए इस के लिये लम्बी चौड़ी चूलें मारने की ज़रूरत नहीं है। आज अगर हम कामयाब हो गए तो समझो इसी तरह के आठ-दस और कामयाब मिशन पूरे करने की देर होगी, फिर हमारे क्या, पूरी बिरादरी के मसले हल हो जाएँगे।“
“यार तू सुबह से बुझारतें बुझवा रहा है। बात का मुँह तो खोल पहले। पता नहीं तू क्या बक रहा है।”
“बात ये है कि फ़तेहगढ़ के अंदरून महल्ले में दो अदद मौतें हुई हैं। एक शेख़ों की माँ की और एक दूसरी, बाबे शाह के चरसी बेटे की। दोनों के जनाज़े डीगर की नमाज़ के बाद हैं। दोनों को फ़तेहगढ़ के पुराने क़ब्रिस्तान में दफ़नाया जाना है। ये सारी ख़बर मैंने सवेरे आलू और तुम्हें मिलने से पहले ली थी और जब तुम अपने अब्बे के तन्नूर पर थे, तब आलू और मैं क़ब्रों की खुदाई वाली जगहें देखने गए थे। इत्तिफ़ाक़ से दोनों क़ब्रें नलकों के आस-पास ही हैं…”
कद्दू मंसूबे की तफ़सील बड़ी राज़दारी से बताता रहा। दूर किसी मस्जिद से डीगर की अज़ान सुनाई दे रही थी। हल्की-हल्की हवा चलने लगी थी जिस से मुझे पानी में खड़े-खड़े ठंड महसूस हो रही थी। मैंने आलू को देखा तो उसके होंट नीले नज़र आए। उसे भी सर्दी लग रही होगी। या शायद वो भी कद्दू की तफ़सील सुन कर अंदर ही अंदर डर रहा होगा। अब तक सारे मिशन दिन को अंजाम पाए थे। किसी एक में भी मौत, जनाज़े, क़ब्रिस्तान और कफ़न का कोई दख़्ल नहीं था। यहाँ तक कि जब हम ने मानी जट के मोटे भाई की ठुकाई की थी, तब भी दिल में किसी डर, ख़तरे का नाम-निशान न था। लेकिन अब ये रात में क़ब्रिस्तान… मेरी तो फट के तंबू होने वाली थी!
“तुम दोनों को बस इतना करना है कि शाम का अंधेरा फैलते ही क़ब्रिस्तान के नलके पर पहुँच जाना है। आगे क्या करना है, ये मैं उधर ही बताऊँगा।”
“उधर क्यूँ? अभी बताओ। तूने कहा था कि बैंगनी आएगा तो बात का सारा मुँह खोल देगा। अब टशन-बाज़ियाँ क्यूँ लगा रहा है?”
“कहा था मगर…”
“आलू ठीक कह रहा है। सारी बात अभी खोलो। फिर फ़ैसला करेंगे कि इस मिशन के लिए निकलना है या नहीं।”
कद्दू मेरी बात से चिढ़ गया। वो एक झटके से उछला और पानी से निकल कर किनारे पर बैठ गया।
“तुम लोगों के दिमाग़ में गोबर भरा है क्या? समझते ही नहीं। पहले किसी मिशन में मुश्किल आने दी है मैंने जो अब इतने फ़िक्र-मंद हो रहे हो? दिमाग़ों के साइज़ों के हिसाब से बहस करो। तुम दोनों से बड़ा हूँ, भूल गए क्या?”
“पर तुम हम से क्यूँ छुपाना चाहते हो? क्यूँ बात को कुत्ते की नाड़ों की तरह उलझा रहे हो?” कद्दू चुप कर गया।
हम दोनों बारी-बारी नहर से बाहर निकल आए। हम ने क़मीज़ें पहने रखीं और सलवारें उतार दीं और दरख़्तों की ओट में अपनी-अपनी सलवारों को निचोड़ने लगे। कद्दू, किसी गहरी सोच में गुम, पानी में पाँव मार-मार कर छींटें उड़ा रहा था। आलू ने मुझे सींत मारी।
“कद्दू, यार”
“छोड़ो अपनी बकवास! सारी बात जाननी है ना? तो सुनो, शाम की अज़ानों से पहले क़ब्रिस्तान में दोनों लाशों को दफ़्ना दिया जाएगा। क़ब्रों पर फ़ातिहा-शातिहा पढ़ कर सब लोग वापस मय्यतों वाले घरों की तरफ़ लौट जाएँगे, जहाँ सब रोटी खाएँगे। हम भी उधर से खाएँगे और पेट भरते ही उठ कर सीधे क़ब्रिस्तान आ जाएँगे। जैसे ही शाम का अंधेरा पूरे क़ब्रिस्तान पर छाएगा, आलू! तू खड़ा हो जाएगा नलके के पास वाले दरवाज़े पर और ध्यान रखेगा कि दूर-दूर से भी कोई हमारी तरफ़ न आता हो। और कालू! तू शहतूतों वाले टब्बे पर खड़ा हो कर गोरकनों के हुजरे पर आँखें गाड़े रखेगा। उधर तुम आपस में कोई आवाज़ नहीं निकालोगे। न खाँसोगे, न पादोगे। दोनों क़ब्रों पर से ताज़ा गुलाबों की चादरें उतार कर कानियों पर चढ़ाना और उन्हें बड़े शापरों में डालने का काम मेरा। गुलाबों की चादरें ले कर हम प्लॉट पर पहुँचेंगे। इकट्ठे नहीं, एक-एक कर के। समझ में आ गई सारी बात या है किसी तफ़सील तशरीह की ज़रूरत?”
“उन फूलों की चादरों का करेंगे क्या?”
”बेच कर पैसे बनाएँगे।”
“क्या?”
कद्दू की बात से हमारे मुँह खुले के खुले रह गए। कद्दू से ऐसे वाहियात मंसूबे की उम्मीद नहीं थी।
“लेकिन ये तो चोरी होगी, नईं?”
आलू ने मेरे दिमाग़ की बात कह दी, जिस पर मैंने भी सर हिलाया।
“चोरी नहीं, उध बुध कुध, यानी इधर की चीज़ उधर।”
“कद्दू तू अब बाओ टोची की ज़बान बोल रहा है। उध बुध कुध और बागड़-तागड़ बाओ टोची के फ़ार्मूले हैं। मिशन से इस का क्या लेना-देना?”
“बाओ टोची होगा वो तुम्हारा और सारे कटड़े का। मेरा तो वो बाप है। सालो, तुम मेरे बाप को तमीज़ से बुलाओ।”
इस पर हम दोनों की हंसी छूट गई। हम वाक़ई भूल गए थे कि कटड़े का सब से सियाना और घुन्नी बाओ टोची तो कद्दू का बाप है। कद्दू हमें हंसते देख कर तैश में आ गया।
“हाँ तो बोल रहा हूँ अपने बाप की ज़बान। उस की नहीं तो क्या तुम्हारे बापों की ज़बान बोलूँगा?” कटड़े की भलाई के लिए भी तो सब से आगे वही होता है। कटड़े की बत्ती ख़राब है तो बाओ टोची बिजली वालों के दफ़्तर के चक्कर काट रहा है। अहाते का सोलंग लगना है तो बाओ टोची काउंस्लर की मिन्नत-समाजत करने जा रहा है। सरकारी स्कूलों में किसी चंगड़, माछी, चमार के बाल-बच्चे का मसअला बना है तो बाओ टोची अपना अड्डा छोड़ कर जा रहा है। और बैंगनी, तेरी माँ को दाईगिरी के कितने काम मेरे बाप के कहने पर मिले? और आलू, तेरी दादी को दानों की भट्टी की जगह दिलवाने वाला कौन था? यही नहीं, बाबे शाह की कोठी और मुग़लों के दोनों घरों की इंचार्जी भी उसी बाओ टोची के पास है जिस के नाम पर तुम इस वक़्त बे-ग़ैरतों वाली हंसी हंस रहे हो और जिस की एक फ़ालिज-ज़दा बाँह पर बाबे शाह के घर की ज़नानियाँ भी ठठ्ठा-मख़ौल करती नहीं थकतीं।
बाबे के घराने के तो अगले-पिछले हिसाब मैं बराबर कर लूँगा, मगर तुम दोनों… तुम दोनों मेरे यार नहीं जंगली सुअर हो, जंगली सुअर! जाओ अपनी थूथनियाँ पीछे हटाओ। ये मिशन मैं अकेले ही पूरा कर लूँगा, दफ़ा दूर।“
कद्दू ने धक्के से हमें नहर में गिरा दिया। आलू का सर मेरी थूथूनी पर लगा तो मेरी चीख़ निकल गई। एक गहरा ग़ोता खा कर हम ने सर पानी से बाहर निकाले। देखा तो कद्दू को अपनी जगह से ग़ायब पाया। फिर वो हमें दरख़्त के पीछे खड़ा दिखाई दिया। उस की पीठ हमारी तरफ़ थी और वो सड़क पर चलती ट्रैफ़िक को घूर रहा था। हम किनारे पर पहुँचे ही थे कि वो पलट कर चीख़ा, “अभी मैंने तुम्हें आज के मिशन की आधी तफ़सील दी है, बाक़ी हिस्सा मौक़े पर ही बताऊँगा। मेरा साथ देने को जी चाहे तो वक़्त पर आ जाना। मैं किसी चमड़ू का इंतज़ार नहीं करूँगा।“ कद्दू ये कह कर निकल गया।
हम भी कपड़े झाड़ कर घर की तरफ़ चल पड़े। आलू ने कहा कि उसे भूख लग रही है। आलू की बात सुन कर मेरा पेट भी गुड़गुड़ करने लगा। मेरी जेब में दस का नोट था जो कद्दू की गंदी हरकत की वजह से भीग गया था। मैंने नोट हथेली पर रख कर सूरज की तरफ़ किया। फिर जमाले की रेहड़ी देख कर अध-सूखा अध-गीला नोट जमाले को दे दिया। उस ने नोट को उलट-पलट कर देखा, हमें घूरा, दाल सेवईयाँ और पूड़ा काग़ज़ पर जमाया और हमारी हथेलियों पर रख दिया।
आलू किर्च-किर्च पूड़ा खाता रहा।
अब्बे के ढाबे पर ताला पड़ा था। मैंने दरवाज़े की दर्ज़ों में से अंदर झाँका। मुझे कुछ नज़र न आया। आलू ने पूड़े वाला काग़ज़ ढाबे की दर्ज़ों में ठूंस दिया। आलू का घर क़रीब आया तो उसे टट्टी आ गई।
मैं बाबे शाह के अहाते में आ गया। ख़ासा मजमा लगा था। जहाँ तक दरियाँ बिछी थीं, सर ही सर नज़र आ रहे थे। तीन-तीन चार-चार की टोलियों में बैठे लोग, चावलों की परातों में सर दिये, चुपचाप खा रहे थे। मैंने आँखें घुमा कर देखा। कई गज़ दूर एक कोने में बैठने की जगह बची थी। एक बाँटने वाला मेरे पास आया और बाज़ू से पकड़ कर उधर ही फ़र्श पर बिठा दिया।
“साफ़ है ज़मीन बैठ जा इधर ही!”
जब दूसरी बार चावल डलवाने के लिए मैंने थाली ऊपर उठाई तो मेरी नज़र कुछ दूर फ़र्श पर बैठे आलू पर पड़ी। वो और कटड़े के दो और लड़के एक ही परात में खा रहे थे।
लोग अब जा रहे थे। दरियों पर अब सिर्फ़ चंद ही टोलियाँ बची थीं। मैंने क़मीज़ के उल्टे घेरे से हाथ पोछते हुए आलू से कद्दू का पूछा तो उस ने बे-ख़बरी का इशारा किया। मैंने आलू को आँख मारी। आलू समझ गया। हम दोनों डेढ़-डेढ़ गिलास पानी चढ़ा कर क़ब्रिस्तान के लिये निकल खड़े हुए।
कद्दू से मिल कर हम अपने-अपने मोर्चों की तरफ़ जा रहे थे कि आलू बोला, “तुझे डर लग रहा है?” मैंने ना में सर हिला दिया। मुझे सच में नहीं डर लग रहा था।
“आलू, पता है, नहर में नहाते हुए क़ब्रिस्तान का ख़्याल डरा रहा था। तब मुझे भूख लगी थी और अब दो थालियाँ खाने के बाद डर का नाम-निशान नहीं है दिमाग़ में। तुम्हें डर लग रहा है?”
“बिल्कुल नहीं।”
मैंने उस के चेहरे को देखा। वहाँ डर जैसा कोई तअस्सुर नहीं था।
भरे पेट डर नहीं लगता, मैंने सोचा।
कद्दू ने मिनटों में अपना काम पूरा कर दिया। फिर वो हमारी नज़रों से ओझल हो गया। जल्दी ही वो नई क़ब्रों में से एक के सिरहाने खड़ा दिखाई दिया। उस के हाथों में से लिफ़ाफ़े ग़ायब थे। मेरे और आलू के मोर्चे के दरमियान पन्द्रह-बीस क़ब्रों का फ़ासला था। इस के बावजूद नलके और टब्बे के दरमियान खड़े खम्बे पर लटके बल्ब की रौशनी में हम एक दूसरे के इशारे का मतलब बूझ सकते थे। कद्दू ने कुछ कहा, जिसे सिर्फ़ आलू सुन पाया। मैं नलके के पास खड़ा उन्हें घूरता रहा। आलू कद्दू की तरफ़ हरकत करने लग गया। जब वो दोनों मिल गए तो कद्दू पुकारा, “मिशन डम डम!” ये ख़ास अल्फ़ाज़ थे जिन का मतलब था मिशन पूरा हो गया।
”अब यहाँ किस लिये खड़े हैं, अपना-अपना रास्ता नापें।”
”नापते हैं अपना-अपना रास्ता, पहले डम-डम तो होने दो।”
ये कहते ही कद्दू ने सलवार का नाड़ा ढीला कर के अपनी बोटी बाहर लटका ली। इस से पहले कि मैं और आलू कुछ समझ पाते, कद्दू हरामी क़ब्र के सिरहाने पर निशाना बाँध कर मूतने लग गया। वो डर जो कुछ देर पहले किसी जिन की तरह ग़ायब था, यकायक मेरे सारे बदन पर छा गया। आलू भी सकते में था। अगर इस वक़्त कद्दू की ये हरकत कोई देख ले तो हम तीनों का क्या हश्र हो? थाने और पुलिस की मार के ख़याल से मुझे अपनी गोलियों में दर्द महसूस होने लगा। लगता था बाबे शाह का चरसी लड़का अभी क़ब्र में से हाथ बाहर निकालेगा और कद्दू समेत हम दोनों को क़ब्र के अंदर खींच ले जाएगा।
कद्दू नाड़ा कसते हुए कमीनी हंसी हंस रहा था।
अगरचे हम जल्द ही वापस अपने प्लॉट में थे मगर क़ब्रिस्तान से प्लॉट तक पहुँचने में लगने वाले वक़्त में जो देखा सुना, उस से हम बे-ख़बर रहे। आलू घर जाना चाहता था मगर कद्दू ने जाने न दिया। मेरे घर के सहन से अब्बे की न समझ में आने वाली चिल्लाहट सुनाई दे रही थी। आज फेंटी लगे ही लगे, मैंने सोचा और कान कद्दू की वज़ाहत पर लगा दिये।
पहले तो मेरे सामने ऐसी गीदड़ों वाली बैठनी न बैठो। जो कुछ मैंने किया, उस के पीछे लोहा तोड़ वजह मौजूद है…”
“तुम अब कुछ भी कहो। ये बेशर्मी थी, बे-ग़ैरती थी।”
आलू की बात से मैंने इत्तिफ़ाक़ किया।
“तुम दोनो अब अपने-अपने मुँह बंद रख के पूरी बकवास सुन लो। मैं साबित कर दूंगा कि पादने की मोरी और होती है और हगने की और।”
कुछ देर को सब चुप बैठे रहे। प्लॉट में टिड्डियों की टिटिड़-टिटिड़ सुनाई देती रही।
“पाँच साल पहले की बात है। तब मैं आठ नहीं तो नौ साल का होउंगा। बाबे शाह की छोटी लड़की के ब्याह का मौक़ा था। अम्मा को झाड़ू-पोछे के लिए बुलाया गया था। अम्मा मुझे भी साथ ले गई थी कि ब्याह के चावल-शावल खा लूँगा। चावल तो ज़ियादा न खाए मगर मैं तीन आर. सी. कोला की बोतलें चढ़ा गया। मज़ा बड़ा आया मगर थोड़ी देर में मसाने पर बोझ महसूस होने लगा। मैंने बर्दाश्त किया। फिर नलों में तेज़ दर्द होने लग गया। मैं ढूँढता-ढुँढवाता शेख़ों की चम-चम करती लैटरीन तक पहुँचा तो आगे बाबे के इस चरसी लड़के को खड़ा देखा। मुझे देखते ही उस ने वहाँ से दफ़ा होने का वैसा हुशकारा दिया जैसा आवारा कुत्तों को दिया जाता है। मैं कान लपेट कर सीधा अम्मा के पास आ गया। अम्मा को बताया तो वो परेशान हो गईं। बोली हिम्मत कर के घर चला जा, यहाँ के टट्टी-ख़ाने हमारे लिये नहीं हैं। लेकिन मूत अब मेरे दिमाग़ पर चढ़ रहा था। अब या तो मूतना था या दर्द से मर जाना था। कहानी ये कि मैंने उन के सहन में खड़े-खड़े सलवार ही में मूत दिया। मैं तो हल्का हो गया लेकिन उस के बाद मेरी और अम्मा की शेख़ों ने जो दुरगत बनाई, उस की पीड़ आज भी महसूस करता हूँ। मेरी हड्डी पसली एक की सौ की, अम्मा की चादर से मेरा पेशाब साफ़ कराया गया। अम्मा को धक्के दे कर गिराया गया। वो शेख़ों के घर से कटड़ों तक बिना चादर के रोती हुई आई। माँ ने इस बेइज़्ज़ती को ऐसा दिल पर लिया कि उस की ज़बान तुतलाने लगी। पाँच साल हो गए अम्मा को मेरा ठीक नाम पुकारे हुए…”
कद्दू गहरी साँस ले कर खंखारने लगा। मैंने अपना हाथ उस के हाथ पर रखा। उस ने अपना हाथ पीछे खींच लिया। एक बार फिर टिड्डियों की टिटिड़-टिटिड़ शुरू हो गई। मैंने देखा कि कद्दू की आँखों में आँसू अंधेरे में भी चमक रहे थे। आलू घर जाने को बेचैन हो रहा था। मैं कब से पेशाब रोके बैठा था। मिशन को पूरी तरह डम-डम करने की अब हमारी बारी थी। मैंने आलू के कान में फूँक मारी। वो उठा और दस बारह ईंटों की ढेरी बना दी। मैंने उस ढेरी पर मिट्टी डाल कर क़ब्र बना दी।
कद्दू खड़ा हो गया।
“तुम दोनो ये क्या बकवास मार रहे हो?”
हम ने एक आवाज़ में “डम-डम” कहा और ज़हन में अपने-अपने दुश्मन का ख़याल ला कर ईंटों की ढेरी पर मूत दिया।
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अज़हर हुसैन लाहौर के निवासी हैं. कहानियां लिखते हैं. उनके अफ़साने पाकिस्तान और भारत से छपने वाले बहुत से अहम अदबी पर्चों में शामिल हो चुके हैं. वो दो अदबी मैगज़ीन्स ‘लाहौर’ और ‘कसौटी’ के एडिटर भी हैं.
अज़हर हुसैन की ये कहानी पाकिस्तानी पंजाब के इलाक़े में मौजूद ‘दलित मुस्लिम’ तबक़े की उस हालत को आँखों के सामने लाती है, जिसे उर्दू में बहुत कम मौज़ू बनाया गया है. पिछड़े तबक़े या हाशिये पर धकेले गए लोगों पर जो काम हुआ भी है, वो इतना कम है कि उसे उर्दू फ़िक्शन की दुनिया में बहुत आसानी से देख और ढूंढ पाना अक्सर मुश्किल हो जाता है. अज़हर की ये कहानी आज के पकिस्तान में ग़रीब और पिछड़े मुस्लिम तबक़े के साथ होने वाले उस बर्ताव को दर्शाती है, जो कहीं न कहीं इसी सच्चाई और कसैले-पन के साथ भारत की पिछड़ी मुस्लिम जातियों के साथ भी आसानी से नज़र आ जाता है, बस आँखें खुली रखने की ज़रुरत है. सोचा जा सकता है कि ‘अपने पेशाब-घरों’ से दूर रखे जाने वाले इन बेहद ग़रीब, अन-पढ़ और मज़लूम लोगों का मज़हब्बी जमाअत वक़्त आने पर किस किस तरह के झूठ के ज़रिये फ़ायदा उठाती होगी और उनमें सबसे बड़ा झूठ उनसे ये कहा जाता है कि हमारे मज़हब में सब लोग एक समान हैं और ज़ात-पात के नाम पर किये जाने वाले भेद-भाव का दूर दूर तक कहीं नाम-ओ-निशान भी नहीं.