गुनाह का ख़ौफ़

चौधरी मुहम्मद अली रुदौलवी

 

अब्दुल मुग़न्नी साहब ने मुख़्तारी के पेशे में वो नाम पैदा किया कि डिप्लोमा वाले बैरिस्टर क्या करेंगे। बड़-बड़े ज़मींदार, ताल्लुक़दार, महाजन ख़ुशामदें करते थे। कमिश्नरी भर में कौन सा इब्तिदाई मुक़द्दमा ऐसा होता था जिस में अब्दुल मुग़न्नी साहब दो फ़रीक़ में से एक के मददगार न हों। उन की तरतीब दी हुई मसिल देख कर चोटी के वकील दंग रह जाते थे। अक्सरों को कहते सुना है कि अगर इस शख़्स ने वकालत का इम्तिहान पास कर लिया होता तो हाई कोर्ट के बेहतरीन एड्वोकेट्स में होता।

अब्दुल मुग़न्नी साहब ने बला का दिमाग़ पाया था। पर नहीं कटे थे। सूबे भर में कहीं का मुक़द्दमा हो, कैसे ही पेचीदा मुआमलात हों, अगर फ़रीक़-ए-मुक़द्दमा उन तक पहुँच गया तो सब मुश्किलें हल हो गईं। ज़बान में न मालूम क्या जादू था और न मालूम कैसे अंछर याद थे कि आदमी को राम कर लेना कोई बात ही नहीं थी। जहाँ सुलह का मौक़ा हुआ, दूसरे फ़रीक़ के दिल में जगह कर के सुलह करा दी, जहाँ लड़ाई का मौक़ा हुआ मुख़ालिफ़ के बेहतरीन आदमी तोड़ लिये, कोई दूसरा हज़ारों-हज़ार में काम निकाले, ये सौ दो सौ में कामयाब हो जाएँ।

वकील न होने का ख़ुद उन को कभी अफ़सोस करते नहीं सुना और अफ़सोस करने का मौक़ा ही कहाँ था, काम इतना था कि फ़िज़ूल ख़याली घोड़े दौड़ाने का मौक़ा भी नहीं था। वकीलों के यहाँ एक मुहर्रिर होता है। कोई ही ऐसा बड़ा हुआ जिस के यहाँ दो हुए। हाई कोर्ट के ऊँचे-ऊँचे वुकला के साथ दो-तीन जूनियर लगे रहते हैं। उन के यहाँ बीस आदमी काम करने वाले थे और फिर न जूनियर का सवाल न सीनियर का। ख़ाली हर शख़्स की फ़ितरी क़ाबिलीयत देख कर काम सुपुर्द किया जाता था। जो अपना काम समझ कर करता था। उन के जलसे में मुक़द्दमे के हर पहलू के स्पेशलिस्ट मौजूद थे। हस्ब-ए- हैसियत ब-मौक़ा ऐतबार वाले दीदावर-ओ-चश्मदीद गवाह मुहय्या हो जाते थे। उनके जलसे में ऐसे लोग भी मौजूद थे जो सौ-पचास बरस का सादा किर्म-ख़ुर्दा काग़ज़ नक़्ल कर दें, धुआँ दे कर नए काग़ज़ को पुराना बना दें, तीन दिन के अंदर हाशिये को दीमक से चटवा दें। मत्न वैसा का वैसा ही रहे।

दस्तावेज़ों से अल्फ़ाज़ ग़ायब कर दें और इबारतें इस तरह दाख़िल कर दें कि बड़े से बड़ा तहरीर-शनास धोखा खा जाए। उनके मिलने वालों में एक मुग़न्नी साहब थे जो बाएँ हाथ से और पाँव से भी लिख लेते थे और शान-ए-ख़त बदल देते थे। हफ़्त-क़लम थे, इस मानी में नहीं कि नस्ख़, नस्तअलीक़, शिकस्ता वग़ैरह-वग़ैरह लिख लेते थे, बल्कि इस रू से कि मुख़ालिफ़ लोगों के अंदाज़-ए-ख़त की ऐसी नक़्ल उतारते थे कि ख़ुद लिखने वाला अगर कुछ दिन बाद देखे तो जाने।

इनके अलावा ऐसे लोग भी थे जो अकसर ज़रूरत हो तो मसल घुमा दें, रेल पर से, कचहरी के अहाते से, घर से या जहाँ से बेहतरीन मौक़ा हो। बस्ते से ज़रूरी काग़ज़ ग़ायब हो जाए बाक़ी वैसे ही रखे रहें, बिल्कुल उसी तरह का बस्ता रख दिया गया और गवाह के घर से काजल का चोर असली बस्ता ले गया। अपने यहाँ के उठने-बैठने वालों में से एक शख़्स की ख़ुद तारीफ़ करते थे कि उन्होनें वो जुर्रत की और सफ़ाई का वो कमाल दिखाया कि दूसरा होता तो पाँव काँप जाते और धर लिया जाता। एक बहुत बूढ़े फ़रीक़-ए-मुख़ालिफ़ अबा-क़बा पहने, जाड़ों के दिन, बग़ल में बस्ता दबाए, अपने वकील के पीछे खड़े बहस सुन रहे थे। उनकी बग़ल से बस्ता निकल गया और किसी को ख़बर तक न हुई। इस के अलावा ऐसे लोग लगे रहते थे जो लड़ाई-भिड़ाई में भी बंद न थे। मगर ये सब दूसरों के लिये करते थे, क्यूँकि उनके ख़्याल में मुक़द्दमे-बाज़ी में और इश्क़-बाज़ी में सब कुछ जाइज़ था।

मगर ख़ुद अपने लिये अब्दुल मुग़न्नी साहब इन तमाम बातों से अलहदा रहते थे। मुक़द्दमात मुआमलात की और बात है। मसलन बयान होता है, एक मर्तबा एक नौजवान ज़मीदार था जो बालिग़ होने  के बाद अपने बड़े भाई पर मुक़द्दमा चलाने वाला था, सब सामान लैस था, सिर्फ़ दावा दाख़िल करना था। स्टाम्प ख़रीद लिया गया था, मीयाद में सिर्फ़ तीन दिन बाक़ी थे। अगर वो दावा हो जाता तो बड़े भाई का दिवालिया निकल जाता और ये भी ज़ेर-ए-बार हो जाता। बड़ा भाई उनके पास आया, अब्दुल मुग़न्नी ने शिकार के बहाने से इस लौंडे को फँसाया और तीन के बजाय चार दिन के लिये इस को न जाने कहाँ अलोप कर दिया। किसी को ख़बर तक न लगी। मीयाद निकल जाने के बाद छोड़ दिया और कुछ ऐसी चालें चलीं कि वो लौंडा हब्स-ए-बे-जा का दावा करना कैसा उन वाक़िआत का ज़िक्र करते डरता था। यूँ बिला वजह किसी का रूआँ कभी नहीं सताया, न अपने ज़ाती मुआमलात में उन को किसी के साथ ज़ियादती करते देखा। महल्ले में हर शख़्स के साथ यगानगी का बरताव था और कौन ऐसा था जिस की ख़िदमत उन्होंने न की हो। अपनी बात के धनी थे और इरादे के ऐसे मज़बूत थे कि जिस बात पर क़ायम हो गए फिर उस से नहीं हटते थे चाहे कुछ हो।

एक मर्तबा ताऊन आया, बीमारों की ख़बर-गीरी, ग़रीबों की तीमारदारी, मय्यतों का दफ़्न करवाना सब अपने ज़िम्मे ले लिया। ताऊन के नाम से लोग घबराते हैं, मगर ये हर जगह पिल पड़ते थे। न मालूम कितने मुर्दे ख़ुद अपने हाथों से क़ब्र में उतारे। लोगों ने कहा कि इंजेक्शन ले लो, मगर उन्होंने परवाह भी न की, इनके मुर्शिद ने एक तावीज़ भिजवाया था, वो ज़रूर कुर्ते के नीचे गले में डाल लिया था और सूरह-ए-तग़ाबुन की मुज़ावलत रखते थे और बस ताऊन की बला ख़त्म होने के बाद अब्दुल मुग़न्नी का असर इर्द-गिर्द अच्छा ख़ासा बढ़ गया था।

अव्वल तो ऐसे आढ़े वक़्त में लोगों के काम आए थे, दूसरे रफ़्ता-रफ़्ता कुछ जायदाद भी पैदा कर ली थी, बहुत सी दुकानें बनवा लीं थीं, जिन में किराएदार बसाते वक़्त किराए का ख़याल इस क़दर नहीं किया जाता था जितना असर बढ़ाने का और लोगों को अपनी पार्टी में शामिल करने का, चुनाँचे म्यून्सिपल और डिस्टिरिक्ट बोर्ड वग़ैरह के इलेक्शन में उनका कैंडीडेट और उनकी पार्टी हमेशा जीतती थी, इन्हीं वजह से अगर मुख़्तार साहब किसी से कोई बात कह दें तो उसे टालना मुश्किल हो, चुनाँचे  उनके मकान के क़रीब एक ज़मीन थी जो एक शख़्स ने मोल ली थी, अब्दुल मुग़न्नी उस के ख़्वाहिशमंद थे, ये आराज़ी उन के भी मौक़े की थी और उस के भी मगर उनके रौब की वजह से वो इनकार न कर सका, इसी ज़मीन पर उन्होंने एक मुख़्तसर मकान बनवाया था जो अभी-अभी तैयार हुआ था और ख़्याल था कि मेहमानों के लिये वक़्फ़ रहेगा नमाज़ रोज़े के बड़े पाबंद थे मगर इसी के साथ ही ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क भी न थे।

दोस्त अहबाब के साथ चौक भी चले जाते थे, ख़ुद उनके घर पर भी इस तरह की सोहबतें आरास्ता हो जाती थीं, उनके कमरे में बायाँ और तानपुरा भी रखा रहता था, मगर ये सब दूसरों की ख़ातिर और आश्ना-परस्ती में गवारा करते थे। हुस्न-परस्ती को जाइज़ जानते थे मगर तर-दामनी में कभी मुब्तिला नहीं होते थे। वज़ादारी का ये हाल था कि रियासतपुर में किसी ज़माने में मुख़्तार थे। इस सिलसिले को मुनक़तअ हुए बरसों गुज़र गए थे लेकिन उनके नाम का मुख़्तार-नामा आज तक पड़ा था। रईस साहब की जायदाद चौथाई नहीं रह गई थी, कुछ इस वजह से और कुछ इस वजह से कि उनकी मसरूफ़ियतें बहुत बढ़ गई थीं उन्होंने रईस साहब को मश्वरा दिया कि मुख़्तार-नामा साहब-ज़ादे के नाम हो जाए। ये सब कुछ था मगर आज तक रईस को अपना आक़ा ही समझते थे और जो काम होता था अपना समझ कर करते थे, रईस साहब के बेटे और ये क़रीब-क़रीब हमसिन थे जिस वक़्त का ये वाक़िआ बयान करता हूँ, अब्दुल मुग़न्नी साहब चालीस इक्तालीस बरस के रहे होंगे और शहामत अली रईस साहब के बेटे का सन् 35 बरस के क़रीब रहा होगा, आदमी ज़रा शौक़ीन मिज़ाज थे मुक़द्दमात की पैरवी में बहुत आया करते थे।

 

फ़िक्र ए बाज़ारी भी हर वक़्त है दरबारी भी
इक मुसीबत है जवानी भी ज़मींदारी भी

 

और चूँकि अब्दुल मुग़न्नी साहब की वजह से खाने और क़ियाम की जगह से बे-फ़िक्र थे इसलिये शौक़ भी आज़ादी से पूरे होते थे अब्दुल मुग़न्नी साहब के घर में उनका कमरा अलहदा था जो सड़क की तरफ़ खुलता था इसलिये अगर रात को उन्होंने किसी को बुलाया भी तो किसी को ख़बर नहीं होती थी, अब्दुल मुग़न्नी से कोई तकल्लुफ़ न था। ख़ुद उनका दिल चाहा या शहामत अली की ख़ातिर से मिनट दो मिनट को चले भी आए और देख कर कि ख़ासदान में पान और लोटा, गिलास, पानी का घड़ा सब मौजूद है, चले गए।

शहामत अली जब मुक़द्दमे के सिलसिले में आते थे तो अमूमन वो दो-तीन दिन रहते थे और जब शह्र के क़याम का कोई उज़्र-ए-माक़ूल न रह जाता था तो जाते थे, एक मर्तबा ख़िलाफ़-ए-आदत कई दिन रहे। चेहरे की कुछ परेशानी कुछ फ़िक्रमंदी से अब्दुल मुग़न्नी को पता चला। पूछने लगे, ख़ैरियत तो है।

शहामत अली –  यार क्या कहें ये दर्ज़ी की दुकान नहीं ह? इस कोठे पर एक रंडी आई हुई है, कहीं बाहर की है, मैंने अब की दौरे में देखा है, भई हम तो कहते रहे मगर ज़ालिम किसी तरह रंग पर आती ही नहीं। कुछ हम ने भी हिमाक़त की कि अपने दिल का राज़ उस पर ज़ाहिर कर दिया। इस के बाद अब तो उस के मिज़ाज ही नहीं मिलते, घम्मन ख़ाँ को दरमियान में डाला मगर वो पाबंदी का उज़्र करती है और यहाँ ये हाल है कि ख़्वाब-ओ-ख़ुर हराम है। रात की नींदें उड़ गई हैं और जो-जो हम कोशिश करते हैं वो और खिंचती जाती है।

अब्दुल मुग़न्नी – ऊँची रंडियों में यही तो ख़राबी होती है कि यूँ तो ख़ातिर-मदारत, लगावट सब कुछ करेंगी मगर मुआमले की बात पर अजीब मिज़ाज की लेने लगती हैं और अगर कहीं झूट-मूट की नथ पहने हुईं तो आश्नाई न हुई क़िला ही फ़तह करना समझिये। छूटते ही बी नायका साहब कहती हैं। अभी मेरी बच्ची कमसिन है कुछ दिन आइए-जाइए, उठिये-बैठिये, लड़की से मानूस हो जाइये आप उस की तबीयत पहचान लें वो आप के मिज़ाज से वाक़िफ़ हो जाए फिर लौंडी को उज़्र ही क्या हो सकता है। अगर पेशे में आ चुकी है तो नौकरी का सवाल पहले ही धरा है, मुस्तक़िल तअल्लुक़ कीजिये, पाबंद कीजिये और ख़ुद भी पाबंद हो जाइये। फिर सब से बड़ी ख़राबी ये है इधर तअल्लुक़ हुआ नहीं उधर अय्याशी के गज़ेट में नाम छपा नहीं, अगर बड़े-बड़े लोगों के नाम से ये अपने को न मंसूब करें तो आला तबक़े वाली कहलाएँ क्यूँ-कर। अगर चोरी-छुपे भी तअल्लुक़ कीजिये तो उस में भी जब तक महीनों हाज़िरी न दीजिये और एक की जगह दो-चार ख़र्च न कीजिये काम नहीं चलता। तुम्हारे मुआमले में इतना ग़नीमत है कि तुम यहाँ के रहने वाले नहीं हो। बाहर वाले की रसाई चोरी-छुपे कभी-कभी हो जाती है क्यूँकि इस में दाम भले-चंगे हाथ आ जाते हैं और आम तौर से कमाने का नाम भी नहीं होता। ख़ैर चलो हम भी देखें, उसी तरफ़ से नया मकान भी देख आएँगे, आज कई दिन से नहीं गए। तख़्त, पलंग, कुर्सियाँ वग़ैरह तो पहुँच गई हैं ज़रा देखना है कि किस तरह से सजाया जाए। उस तरफ़ से खड़े-खड़े वहाँ भी चलना। मकान की आराइश वग़ैरह में तुम्हारे सलीक़े के हम हमेशा से क़ाइल हैं।

इस रंडी के यहाँ पहुँच कर मियाँ अब्दुल मुग़न्नी साहब ने मुँह से तो कुछ न कहा मगर शहामत अली का ऐसा अदब-ओ-लिहाज़ किया गोया ये उनके अदना मुलाज़िम हैं। एक-एक गिलोरी नोश की और रईस साहब की तरफ़ से कुछ दे कर दोनों आदमी उठ आए। लीजिये साहब वहाँ रंग ही बदल गया इधर ये लोग रुख़सत हुए और उधर नायका ने उस्ताद घम्मन ख़ाँ को बुलवाया, कुछ सरगोशियाँ हुईं, जिस का नतीजा ये निकला कि मुआमला रू-ब-राह हो गया। पैग़ाम भेजा कि लौंडी को हुक्म में कभी उज़्र था न है, सिर्फ़ बात ये है कि रात में दूसरे की पाबंदी है। दिन में जब चाहे घड़ी दो घड़ी को तलब कर लीजिये।

अब दिक़्क़त ये आन पड़ी कि रात के लिये तो उन का कमरा मुनासिब था मगर दिन के लिये बिल्कुल ना-मौज़ूँ था। अब्दुल मुग़न्नी के अइज़्ज़ा, नौकर-चाकर, लड़के, सब ही मौजूद थे। मुनासिब यही मालूम हुआ कि वही नौ-तामीर मकान तख़्लिये के लिये काम में लाया जाए। अब्दुल मुग़न्नी कचहरी जा चुके थे चुनाँचे शहामत अली ने एक लड़के को दौड़ाया कि अब्दुल मुग़न्नी से उस मकान की कुंजी माँग लाए, ये भी कहला भेजा कि जब फ़ुर्सत हो तो ख़ुद भी चले आएँगे, तो कुंजी उन्होंने भिजवा दी, ख़ुद थोड़ी देर में आने को कहा। कलीद-ए-मुराद हाथ आ गई, अब्दुल मुग़न्नी को कौन याद करता है। उन्होंने नौकर को तो उस रंडी के यहाँ भेजा और ख़ुद कुंजी जेब में ले कर उस नए मकान की तरफ़ चले। सब से पहले नल खोल कर देखा कि पानी आ रहा है। उस के बाद पलंग की तरफ़ मुतव्वजे हुए। निवाड़ की पलंगड़ियाँ मुतअद्दिद बिछी हुई थीं।

ऊँह… तकिया बिछौना भी नहीं है, न सही, लोटा भी नहीं है मगर शीशे की अलमारी में जग और गिलास तो हैं, यार कुछ पान मंगवाने चाहियें। नौकर जब आएगा तो वो ही ले आएगा। शहामत अली साहब की बेताबी बयान कर के अपने पढ़ने वालों पर ना-तजर्बे-कारी का  इत्तिहाम नहीं लगाना चाहता।

क़िस्सा मुख़्तसर, कुछ इंतज़ार के बाद माशूक़ा, महबूबा तशरीफ़ लाईं। उन्होंने धड़कते दिल से इस्तक़बाल किया। नौकर को गिलोरियाँ, बर्फ़, लेमेनेड लेने को भेजा और पास तो बिठाया मगर नौकर की वापसी के इंतज़ार में दस्त-ए-हवस और ज़ियादा नहीं बढ़ाया। हाँ जो बातें इज़हार-ए-शौक़ की बिल्कुल पेशपा-उफ़्तादा थीं उन का ज़िक्र नहीं मगर निगाह नौकर के धड़के में दर ही से लड़ी रही। इतने में नौकर भी आ गया और उस के साथ-साथ अब्दुल मुग़न्नी भी आ धमके। उन को देख कर शहामत अली साहब के चेहरे पर मसर्रत, ख़ुलूस और शुक्र गुज़ारी का इश्तिहार लग गया, मगर अब्दुल मुग़न्नी साहब के चेहरे पर ख़िलाफ़-ए-उम्मीद संजीदगी, मतानत बल्कि इस से भी बाला-तर वो कैफ़ियत ज़ाहिर थी जो उस वक़्त होती है, जबकि आदमी मुरव्वत को तोड़ कर किसी दोस्त के ख़िलाफ़ दो टूक फ़ैसला कर लेता है, शहामत अली का दिल धक से हो गया। रंडी के दूसरे पहलू में बैठने की दावत दी मगर अब्दुल मुग़न्नी न बैठे, एक दो सेकंड चुप खड़े रहे उस के बाद कहने लगे… यार सुनो तुम जानते हो कि हमारी हर चीज़ जान-माल दोस्तों के लिये वक़्फ़ है, मगर इस मकान में ये काम नहीं हो सकता है। अभी इस घर में मीलाद शरीफ़ नहीं हुआ है।

Facebook
Twitter
LinkedIn