कच्चा

उस की पैदाइश वक़्त से पहले हुई। दाई ने ला कर बाप की गोद में डाला तो उस के ना-मुकम्मल हाथ-पाँव का बता दिया। बाप को अपने बाप की बद-दुआ याद आई। बाप ने उस का कच्चा होना जान लिया। बाद में कुछ और बातें बाप के सामने उस के कच्चे होने के सुबूत लाती रहीं। मगर हैरत-अंगेज़ तौर पर उसकी याद्दाश्त से दो मनाज़िर कभी धुँधलाए नहीं। जाने कैसे वो पक्के रह गए।

पहला मंज़र तब का था जब माँ की वफ़ात के बाद वो नानी के पास रहा था, चार साल बाद उस का बाप उसे वापिस लेने आया था। इस मंज़र में उसकी रोती हुई नानी के दो सूखे से बाज़ू थे जो उसे उसके बाप से वापिस लेने के लिए मिन्नतें करते वक़्त उठे हुए थे।

दूसरे मंज़र में उसकी अपनी माँ थी, उसके पीछे-पीछे चलती, अपने मर जाने से पहले। क़ब्रिस्तान से लकड़ियाँ जमा करने जाते वक़्त वो उसे साथ ले जाती थी। आम और लीमूँ के बाग़ात के दर्मियान गुज़रते वक़्त गिरी हुई कैरी या लीमूँ उठाने पर कभी झिड़कती तो कभी चपत मार देती। फिर फेंक देने पर उसके सर पर हाथ फेरती चलती। वापसी पर माँ के दोनों हाथ सर पर पड़े लकड़ियों के गट्ठे को सँभालने में लगे होते तो वो कैरी या लीमूँ उठाने की जुर्रत कर लेता। बड़ा आम तो उसके अधूरे हाथों ने कभी न उठाया। ज़र्द रंग के लीमूँ की ख़ुशबू और खटास अच्छी लगती थी। वो लीमूँ सूँघता, माँ की झिड़कियाँ खाता घर की तरफ़ चलता रहता। घर तक पहुँचते माँ का ग़ुस्सा ठंडा पड़ जाता। फिर वो लीमूँ को पसीजते हाथ में पकड़े सूँघता रहता। मगर अब लकड़ियाँ लेने क़ब्रिस्तान जाते कैरी या लीमूँ उठाने की हिम्मत न पड़ती। वैसे भी ख़ाली पेट उसे पीलू का फल खाने पर उकसाता होता।

नई अम्माँ जब सुबह में उसका कान एँठते लकड़ियों के लिए घर से बाहर निकालती, वो सहमा हुआ आम और लीमूँ के बाग़ों के दर्मियान गुज़र जाता। बस उस वक़्त अम्माँ ज़्यादा याद आने लगती। जब काँटे-दार झाड़ियों से लकड़ियाँ चुनते काँटा चुभ जाता। उसके सीधे हाथ का अँगूठा और शहादत की उंगली चूँकि पैदाइशी नाख़ुन वाले हिस्से से महरूम थे, इस लिये काँटा बहुत मुश्किल से निकल पाता और जिस दिन लकड़ियाँ घर ले जाने में देर होती उस दोपहर खाना न मिलता। नई अम्माँ धकेल कर दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेती। वो गाँव की गलियों में फिरता या जोहड़ किनारे दरख़्तों के साए में जा बैठता। भूक ज़्यादा सताती तो गाँव के चंगे मुड्स (वडेरे) की ड्योढ़ी में चुप-चाप उकड़ूँ बैठ जाता। देर-सवेर चंगे मुड्स की बेवा बहन की नज़र पड़ती तो वो उसके सामने खाना ला कर रखती और फिर उस की नई अम्माँ को सलवातें सुनाती। ऐसी बातें बाप तक पहुँचाने का उसे कभी ख़्याल न आया। दो-तीन मर्तबा नई अम्माँ ने बाप को उसके लकड़ियाँ देर से लाने की शिकायत की थी। बाप ने गर्म हो कर उसे तमाँचे जड़ दिये। अब बाप का लाल भभूका चेहरा भूक सहने में मज़ीद मदद देता। वैसे भी वो बाप को देख कर बिल्ली के बच्चे की तरह इधर-उधर दुबकने लगता।

उसके कुछ बड़े हो जाने पर बाप ने शह्र के मदरसे में दाख़िल करवा दिया। उसी शह्र में बाप की साईकल पंक्चर की दुकान थी। सुबह को बाप साथ ले जाता और शाम ढले वापिस ले आता। अब काँटों और भूक से उसकी जान छूट चुकी थी मगर ख़ुश वो फिर भी न था। उससे क़ायदा बग़दादी का सबक़ ही याद न होता था। मदरसे के पक्के फ़र्श पर उस्ताद हाफ़िज़ के आगे दो-रूया क़तार में बैठे, सबक़ को ज़ोर-ज़ोर से दोहराने के बाद भी वो अलफ़ाज़ को भुला बैठता। वो एक दूसरे में गड-मड हो जाते और वो उन्हें पहचान ही न पाता। उस्ताद हाफ़िज़ के डंडे का डर मेहनत तो करवाता मगर सुनाने जाता तो सबक़ उसके अंदर से फिसल जाता। हाथों पर बेद की ज़रबें सहता वो फिर सबक़ पक्का करने में मगन हो जाता। अगर किसी वक़्त टुंड मुंड दरख़्त जैसे बग़ैर नाख़ुन वाले सीधे हाथ की दो और उल्टे हाथ की चार उंगलियों के सिरे पर बेद पड़ता, उस पर सुकून हराम हो जाता। आँखें मदरसे की छत में लगे परनाले की तरह बह निकलतीं। जैसे-तैसे कर के उसने क़ायदा बग़दादी ख़त्म किया और क़ुरआन पढ़ना शुरू हुआ। एक शाम वो रोज़ाना की तरह अस्र नमाज़ के बाद मदरसे के बाहर रोड पर आ बैठा और और बाप का इंतिज़ार करने लगा। सूरज ग़ुरूब होता गया। मग़रिब की अज़ान हो गई। बाप न आया। वो मस्जिद में नमाज़ पर जाने की बजाय वहीं बाप का इंतिज़ार करता रहा। थोड़ी देर में बाज़ार की सुनसानी, अंधेरे और इंतिज़ार ने दिल को दहलाना शुरू किया। वो उठ कर गाँव जाते रास्ते पर चलने लगा। कुछ दूर चलने के बाद ख़ाली रास्ते और कुत्तों के भौंकने की आवाज़ों ने पीछे की तरफ़ दौड़ लगवा दी। वो मदरसे गया तो उस्ताद हाफ़िज़ ने इशारे से अपनी तरफ़ बुलाया। उस्ताद हाफ़िज़ अपनी मुक़र्रर-करदा मसनद पर टेक लगाए बैठा था। मुसाफ़िर शागिर्द सबक़ पढ़ रहे थे।

“तेरा अब्बा कह गया है कि अब तू यहाँ रहेगा। जा, जा कर सबक़ पढ़। ये बात सुन कर उस का दिल धड़कना छोड़ कर पाँव की तलियों में जा पड़ा। वो उठा और मुसाफ़िर शागिर्दों की सफ़ में जा बैठा। रात को सोने का वक़्त हुआ। हर एक अपना अपना बिस्तर खोल कर सोने की तैयारी करने लगा। उस के पास बिस्तर था ही नहीं। उसने मदरसे के साथ मौजूद मस्जिद में एक सफ़ को लपेट कर सिरहाना बनाया और वहीं लेट गया। दूसरे दिन बाप की दुकान पर चला गया।

“अब तू मदरसे में रह और पढ़ाई कर। मैं तेरा बिस्तर और कपड़े ले आऊँगा।” बाप ने देखा तो इतना बोल दिया। वो बैठा टुकुर-टुकुर बाप की सूरत देखता रहा। एक-दो दिन में बिस्तर और कपड़े आ गए। दिन-ब-दिन उसकी कमज़ोर याद्दाश्त से गाँव की गलियाँ, जोहड़ निकलता गया। वो मस्जिद में बिछी सफ़ों में से एक सफ़ बन गया। उसे ख़ुद याद नहीं रहा कि कितने साल उसको क़ुरआन पूरा करने में लग गए। क़ुरआन ख़त्म करने के बाद उस्ताद हाफ़िज़ ने बाप को बुलाया।

“तेरा बेटा किसी काम का नहीं। इस का ज़ह्न ही नहीं। जिस से छः कलिमे और सूरतें याद नहीं होतीं वो सारा क़ुरआन कैसे हिफ़्ज़ करेगा।”

“हाफ़िज़ जी मेरे भी तो किसी काम का नहीं। हाथ देखें हैं आपने उसके? वो न पंक्चर लगाने का काम कर सकता है न उससे कुदाल-बेलचा पकड़ कर मज़दूरी की जाएगी। मैं उसका करूँगा क्या? आप मेहरबानी करो।”

“उसको दर्स-ए-निज़ामी वाले मदरसे में छोड़ आओ। मैं मौलाना साहब को कहता हूँ। वो उसका कुछ कर लेंगे।“ बाप ने जा कर दूसरे मदरसे के मौलाना साहब के हवाले किया। दर्स-ए-निज़ामी शुरू हुआ। पहले साल में फ़ारसी की किताबें थीं। ये काम उसे ज़रा आसान लगा। आहिस्ता-आहिस्ता फिर वही दिन लौट आए। अरबी ग्रामर की इब्तिदा क्या हुई, उसको कुछ समझ न आता। मार, कटाई, तज़लील सहने में मुश्किल तब तक रही जब तक उसने उनसे हम-आहंगी पैदा न कर ली। वक़्त कट रहा था। कभी पास कभी फ़ेल का सिलसिला जारी रहा। उसने रोज़-ओ-शब की मुरव्वजा डगर पर ख़ुद को ढालने की क़ुव्वत हासिल कर ली थी। फिर एक अरसे बाद मुसीबतों के एक धारे ने उसकी तरफ़ रुख़ कर लिया। उस वक़्त वो छटी जमात में होने के साथ उस मस्जिद में मुअज़्ज़िन के तौर पर अज़ान कहता और सफ़ाई का काम करता था, जहाँ मदरसे का एक उस्ताद पेश-इमामत करता था। उसको खाना वग़ैरा मिल जाता था। बाक़ी तनख़्वाह के बारे में उस्ताद साहब की बात आख़िरी होती। कभी-कभार कोई शागिर्द कहने पर उभारता। कहता, मस्जिद कमेटी वाले उस्ताद साहिब को मुअज़्ज़िनी की तनख़्वाह देते हैं। वो उस्ताद साहिब से मांग ले। मगर ऐसा मुनासिब मौक़ा कभी पैदा न हुआ कि वो अपनी तनख़्वाह हासिल करने का उस्ताद को कह सके।

एक दिन जुमा मस्जिद में उस्ताद साहिब ने छुट्टी की और उसे ख़िताबत-ओ-नमाज़ के लिये कह दिया। उसने अपने तौर पर तैयारी की और सँभल-सँभल कर ख़िताबत की और जुमा पढ़ाया। कमेटी के सद्र को उसका अंदाज़ बहुत पसंद आया। उसने जुमे के बाद नमाज़ियों से इकट्ठे किये जाने वाले चंदे में से चंद सौ उसको दिये और तक़रीर की तारीफ़ की। वो वहाँ से उठा और होटल पर जा कर पहली बार अपनी मर्ज़ी से कुछ खाने का अरमान पूरा किया।

दूसरे दिन औक़ात-ए-तदरीस (पढ़ाई के समय) में उस्ताद साहिब ने बुलाया। वो सद्र साहब के दिए पैसों का पूछ रहे थे। उसने पैसे ख़र्च कर देने से आगाह क्या किया उस्ताद साहिब ने उसे ज़बान की धार पर रख लिया। तफ़सीर की किताब सामने रखे उन्होंने उसके क़रीबी ज़नाना रिश्तों को ख़ूब उधेड़ा। इस दौरान ना-दानिस्तगी में उसने दलील के तौर पर सद्र साहिब के ख़ुद पैसे देने की बात कह डाली। उस्ताद साहिब ने न सिर्फ़ पास रखा बेद उठाया बल्कि ख़ुद उठ खड़े हुए। पहले ख़याल ने उसके दोनों हाथ बग़लों में छिपा कर बचाने की कोशिश की और निशाना पीठ और बाज़ू बने। कार्रवाई मुकम्मल होने के बाद वो कराहता जान बख़्शी का ख़्याल लाते रुख़स्त हो गया। मगर ये मुम्किन न हुआ। अगली सुबह वो सबक़ पक्का न होने पर निशाना बना। रात-भर सबक़ याद कर के पक्का सुनाने के बाद इबारत में ग़लतियाँ सरज़द होने पर धुनक दिया गया। इस से कुछ दिन बाद दौर पक्का न होने पर मारा गया। रोज़मर्रा की सज़ा सहने की तो वो ताक़त रखता था मगर मिक़दार इस क़दर थी कि वो दाढ़ी आने के बाद पहली बार दहाड़ें मार-मार कर रोया। अलग बात ये थी उसे मस्जिद की मुअज़्ज़िनी से निकाल दिया गया।

हाथ-पाँव मार कर एक हम-सबक़ की कोशिश से उस ने और मस्जिद में जगह हासिल की। दो दिन के बाद औक़ात-ए-कार (काम का वक़्त) की बे-ज़ाबतगी और पढ़ाई में पीछे होने की वुजूहात बता कर कहीं भी मुअज़्ज़िनी और इमामत पर रोक लगा दी गई। साथ में इताब-ओ-सज़ा तअत्तुल के बग़ैर चलता रहा। ये दिन थे जब उसके लिये न पा-ए-माँदन थी न जाए-ए-रफ़्तन। अगर कहीं भी कोई दर खुला होता वो उस को चल निकलता। अलबत्ता शहर का क़ब्रिस्तान था जहाँ वो अस्र के बाद जा बैठता। किसी दिन कोई अपने अज़ीज़-ओ-अका़रिब की क़ब्र पर आया हुआ उससे फ़ातिहा और दुआ करवाता और उसके हाथ चंद रुपय पकड़ा देता।

छुट्टियों में जब वो गाँव गया। अर्सा-ए-दराज़ बाद चंगे मुड्स की बेवा बहन से मिलने गया। उसने उसको अपने शौहर की क़ब्र पर जा कर फ़ातिहा-ख़्वानी का कहा और आती सर्दियों की मुनासबत से एक रज़ाई दे दी। क़ब्रिस्तान पहुँच कर उसने क़ब्र की सफ़ाई की और फ़ातिहा पढ़ कर वापिस होने लगा। उसे माँ की क़ब्र याद आई। वो जा कर ख़स्ता-हाल क़ब्र पर खड़ा हुआ। जब क़ब्र की मिट्टी और कच्ची ईंटों को दुरुस्त जगह टिका कर फ़ारिग़ हुआ, सूरज ढलने पर आ गया था। वो क़ब्र की पायँती की तरफ़ फ़ातिहा-ख़्वानी के लिये जा बैठा। फ़ातिहा-ख़्वानी शुरू तो कर दी थी मगर पूरा करने पर क़ादिर ही न हो रहा था। चंद अलफ़ाज़ अदा करता और आगे हिचकियाँ निकल जातीं। दोहरा होते हुए वो क़ब्र के तावीज़ पर माथा टेक देता। दिल था कि फटने पर आया हुआ था। क़ब्रिस्तान की हद फलाँग कर लीमूँ के बाग़ में क़दम रखा तो उसे लगा जैसे बचपन की मानिंद माँ क़दम-ब-क़दम उस के पीछे चलती आ रही हो। वो वहीं से वापिस भागा। जब घर पहुँचा, इशा हुए देर हो चुकी थी। उस दिन से छुट्टी ख़त्म होने के दिन तक बिला-नाग़ा क़ब्रिस्तान जाना और माँ की क़ब्र पर बैठना लाज़िम हो गया। वहाँ के सुनसान और उजाड़ माहौल में बैठे रहते उसे कुछ क़रार हासिल हो जाता। मदरसे के खुलने का दिन आया। उसने कपड़े प्लास्टिक की थैली में डाल कर रज़ाई सर पर रखी और पैदल चलता मदरसे जा पहुँचा। इस बार सर्दियों में गर्म रज़ाई ने सुख से सुलाया। पहले तो दो रलियाँ ऊपर लेने के बावुजूद ठीक तरह नींद ही न आती थी।

बाक़ी आख़िरी दो साल थे। एक सातवीं जमात, जिसे मौक़ूफ़ अलैहि भी कहा जाता था और फिर दौर-ए-हदीस। इन दोनों सालों में उसने जुमेरात की जुमेरात मदरसे में होने वाली तर्बीयती नशिस्त के ज़रिये ख़िताबत का तरीक़ा सीख लिया। दौर-ए-हदीस के इख़्तिताम तक वो अच्छा बोलने पर क़ुदरत हासिल कर चुका था। सद्र -ए-मुदर्रिस साहिब उसकी इस ख़ूबी से वाक़िफ़ थे। दौर-ए-हदीस मुकम्मल कर के जब वो दर्स-ए-निज़ामी से फ़ारिग़ हुआ तब सालाना प्रोग्राम के अंदर उसे दस्तार-ए-फ़ज़ीलत पहनाई गई। बाप ने फ़ख़्र से गले लगा कर माथा चूम लिया। गाँव जाने की नौबत न आई। सद्र -ए-मुदर्रिस ने शह्र की एक मस्जिद में उसे ख़तीब-ओ-इमाम-ए-मस्जिद मुक़र्रर करवा दिया। ब-तौर ख़तीब-ओ-इमाम उस का पहला जुमा था। मुअज़्ज़िन अज़ान कह कर मिंबर पर मुसल्ला जमा कर उसे ख़िताबत के लिए अर्ज़ करने आया। वो नहा-धो कर इत्र लगाए तैयार था। सफ़ेद लिबास पहने और सफ़ैद रूमाल सर पर डाले वो हुजरे से निकल कर मस्जिद को आया। हाज़िरीन उसे देख कर एहतिरामन उठ खड़े हुए और उसके मिंबर पर तशरीफ़ फ़र्मा होने तक खड़े रहे। मुअज़्ज़िन ने बटन आन किया। लाऊड चैक कर के माईक उस के मुँह के आगे रखा और फिर सामने मौजूद सफ़ में दो ज़ानू हो कर बैठ गया। उसने अरबी अलफ़ाज़ से ख़ुत्बे की इब्तिदा की और फिर मौज़ू तक आते-आते आवाज़ मुतास्सिर कुन हद तक भारी हो चुकी थी। दौरान-ए-ख़ुतबा एक नुक्ता बयान करते वो जोश में आया। उसने जुमले का इख़्तिताम किया तो मस्जिद हाज़िरीन-ए-मजलिस की सुब्हान-अल्लाह से गूँज उठी। अपने सामने बैठे चेहरों पर नज़र डालते उसने दाहिने हाथ से ब-मुश्किल माईक को पकड़ा। आगे बोला तो आवाज़ गरज में तबदील हो चुकी थी। उसे लगा जैसे उस के अंदर ताक़त के तमाम-तर ज़र्रात भर दिये गए हों।

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जीम अब्बासी सिंध, पाकिस्तान से तअल्लुक़ रखने वाले एक बेहतरीन कहानी-कार और लेखक हैं. उनका एक नॉविल रक़्स नामाके नाम से प्रकाशित हो कर पढ़ने वालों की तारीफ़ें बटोर चुका है. सिंध की ज़िन्दगी पर हाल में ही उनका नया नॉविल सिन्धुआया है, जो कि इस वक़्त चर्चा में है.

जीम अब्बासी ने अपनी कहानियों के ज़रिये ग़रीब और छोटे तबक़े के मुसलमानों की ज़िन्दगी का वो नक़्शा खींचने की कोशिश की है, जो ग़रीबी से मजबूर हो कर मज़हब का सहारा लेते हैं और मज़हबी मुल्ला अपने तौर पर खुल कर उनका शोषण करते हैं. ये कहानी भी उनकी ऐसी ही कहानियों में से एक है.

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